कुम्भ मेला – भक्ति और सभ्यता का संगम तथा विश्व का सर्वोच्च तीर्थराज

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कुम्भ मेला – Kumbha Mela

कुम्भ पर्व (mahakumbh) विश्व मे किसी भी धार्मिक प्रयोजन हेतु भक्तो का सबसे बड़ा संग्रहण है । सैंकड़ो की संख्या में लोग इस पावन पर्व में उपस्थित होते हैं । कुम्भ (kumbh) का संस्कृत अर्थ है कलश, ज्योतिष शास्त्र में कुम्भ राशि का भी यही चिन्ह है । हिन्दू धर्म में कुम्भ का पर्व हर १२ वर्ष के अंतराल पर चारों में से किसी एक पवित्र नदी के तट पर मनाया जाता है- हरिद्वार में गंगा, उज्जैन में शिप्रा, नासिक में गोदावरी और इलाहाबाद में संगम जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हैं। इस मेले में करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु सम्मिलित होते है। ऐसी मान्यता है कि संगम के पवित्र जल में स्नान करने से आत्मा शुद्ध हो जाती है।

कुम्भ मेला (Kumbh Mela) धार्मिक मान्यता :

राक्षसों और देवताओं में जब अमृत के लिए लड़ाई हो रही थी तब भगवान विष्णु ने एक ‘मोहिनी’ का रूप लिया और राक्षसों से अमृत को जब्त कर लिया। भगवान विष्णु ने गरुड़ को अमृत पारित कर दिया, और अंत में राक्षसों और गरुड़ के संघर्ष में कीमती अमृत की कुछ बूंदें इलाहाबाद, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन में गिर गई। तब से प्रत्येक 12 साल में इन सभी स्थानों में ‘कुम्भ मेला’ आयोजित किया जाता है।

अर्द्ध कुम्भ (Ardha Kumbh Mela 2019) और माघ मेला:

हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्द्धकुंभ होता है। अर्द्ध या आधा कुम्भ, हर छह वर्षो में संगम के तट पर आयोजित किया जाता है। पवित्रता के लिए अर्द्ध कुम्भ भी पूरी दुनिया में लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करती है। माघ मेला संगम पर आयोजित एक वार्षिक समारोह है।

मुख्य स्नान तिथियों पर सूर्योदय के समय रथ और हाथी पर संतों के रंगारंग जुलूस का भव्य आयोजन होता है। पवित्र गंगा नदी में संतों द्वारा डुबकी लगाई जाती है। संगम तट इलाहाबाद में सिविल लाइंस से लगभग 7 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहां पर गंगा, यमुना और सरस्वती नदी का संगम है, इसे त्रिवेणी संगम भी कहते हैं। यहीं कुम्भ मेला आयोजित किया जाता है जहां पर लोग स्नान करते हैं।

 इस पर्व को ‘स्नान पर्व’ भी कहते हैं। यही स्थान तीर्थराज कहलाता है। गंगा और यमुना का उद्गम हिमालय से होता है जबकि सरस्वती का उद्गम अलौकिक माना जाता है। मान्यता है कि सरस्वती का उद्गम गंगा-यमुना के मिलन से हुआ है जबकि कुछ ग्रंथों में इसका उद्गम नदी के तल के नीचे से बताया गया है। इस संगम स्थल पर ही अमृत की बूंदें गिरी थी इसीलिए यहां स्नान का महत्व है। त्रिवेणी संगम तट पर स्नान करने से शरीर और आत्मा शुद्ध हो जाती है। यहां पर लोग अपने पूर्वजों का पिंडदान भी करते हैं।

कुम्भ का अर्थ :

कुम्भ का शाब्दिक अर्थ कलश होता है। कुम्भ का पर्याय पवित्र कलश से होता है। इस कलश का हिन्दू सभ्यता में विशेष महत्व है। कलश के मुख को भगवान विष्णु, गर्दन को रुद्र, आधार को ब्रह्मा, बीच के भाग को समस्त देवियों और अंदर के जल को संपूर्ण सागर का प्रतीक माना जाता है। यह चारों वेदों का संगम है। इस तरह कुम्भ का अर्थ पूर्णतः औचित्य पूर्ण है। वास्तव में कुम्भ हमारी सभ्यता का संगम है। यह आत्म जाग्रति का प्रतीक है। यह मानवता का अनंत प्रवाह है। यह प्रकृति और मानवता का संगम है। कुम्भ ऊर्जा का स्त्रोत है। कुम्भ मानव-जाति को पाप, पुण्य और प्रकाश, अंधकार का एहसास कराता है। नदी जीवन रूपी जल के अनंत प्रवाह को दर्शाती है। मानव शरीर पंचतत्व से निर्मित है यह तत्व हैं-अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी और आकाश।

कल्पवास :

प्रयाग में कल्पवास का अत्यधिक महत्व है। यह माघ के माह में और अधिक महत्व रखता है और यह पौष माह के 11वें दिन से माघ माह के 12वें दिन तक रहता है। कल्पवास को धैर्य, अहिंसा और भक्ति के लिए जाना जाता है और भोजन एक दिन में एक बार ही किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि जो कल्पवास की प्रतिज्ञा करता है वह अगले जन्म में राजा के रूप में जन्म लेता है।

ज्योतिषीय दृष्टिकोण :

समुद्र मंथन की कथा में कहा गया है कि कुम्भ पर्व का सीधा सम्बन्ध तारों से है। अमृत कलश को स्वर्ग लोक तक ले जाने में इंद्र के पुत्र जयंत को 12 दिन लगे। देवों का एक दिन मनुष्यों के 1 वर्ष के बराबर है इसीलिए तारों के क्रम के अनुसार हर 12वें वर्ष कुम्भ पर्व विभिन्न तीर्थ स्थानों पर आयोजित किया जाता है।

ज्योतिषीय गणना के अनुसार कुम्भ का पर्व 4 प्रकार से आयोजित किया जाता है :

इलाहबाद का कुम्भ पर्व

ज्योतिषशास्त्रियों के अनुसार जब बृहस्पति कुम्भ राशि में और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तब कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है। वर्ष २०१३ में १४ जनवरी से पूर्ण कुम्भ मेला इलाहाबाद में आयोजित किया जाएगा । प्रयाग का कुम्भ मेला सभी मेलों में सर्वाधिक महत्व रखता है

हरिद्वार के कुम्भ पर्व

हरिद्वार हिमालय पर्वत श्रृंखला के शिवालिक पर्वत के नीचे स्थित है । प्राचीन ग्रंथों में हरिद्वार को तपोवन, मायापुरी, गंगाद्वार और मोक्षद्वार आदि नामों से भी जाना जाता है। हरिद्वार की धार्मिक महत्‍ता विशाल है एवं यह हिन्दुओं के लिए एक प्रमुख तीर्थस्थान है । मेले की तिथि की गणना करने के लिए सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति की स्थिति की आवश्यकता होती है। हरिद्वार का सम्बन्ध मेष राशि से है । पिछला कुम्भ मेला मकर संक्रांति (१४ जनवरी २०१०) से शाख पूर्णिमा स्नान(२८ अप्रैल २०१०) तक हरिद्वार में आयजित हुआ था । २०२२ में हरिद्वार में आयोजित होने वाले कुम्भ मेले के तिथि अभी निकालनी बाकी है ।

नासिक का कुम्भ पर्व

भारत में १२ में से एक जोतिर्लिंग त्र्यम्बकेश्वर नामक पवित्र शहर में स्थित है । यह स्थान नासिक से ३८ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और गोदावरी नदी का उद्गम भी यहीं से हुआ । १२ वर्षों में एक बार सिंहस्थ कुम्भ मेला नासिक एवं त्रयम्बकेश्वर में आयोजित होता है । ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार नासिक उन चार स्थानों में से एक है जहाँ अमृत कलश से अमृत की कुछ बूँदें गिरी थीं। कुम्भ मेले में सैंकड़ों श्रद्धालु गोदावरी के पावन जल में नहा कर अपनी आत्मा की शुद्धि एवं मोक्ष के लिए प्रार्थना करते हैं । यहाँ पर शिवरात्रि का त्यौहार भी बहुत धूम धाम से मनाया जाता है

उज्जैन का कुम्भ पर्व

उज्‍जैन का अर्थ है विजय की नगरी और यह मध्य प्रदेश की पश्चिमी सीमा पर स्थित है । इंदौर से इसकी दूरी लगभग ५५ किलोमीटर है । यह शिप्रा नदी के तट पर बसा है । उज्जैन भारत के पवित्र एवं धार्मिक स्थलों में से एक है । ज्योतिष शास्‍त्र के अनुसार शून्य अंश ( डिग्री) उज्जैन से शुरू होता है । महाभारत के अरण्य पर्व के अनुसार उज्जैन ७ पवित्र मोक्ष पुरी या सप्त पुरी में से एक है । उज्जैन के अतिरिक्त शेष हैं अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांचीपुरम और द्वारका । कहते हैं की भगवन शिव नें त्रिपुरा राक्षस का वध उज्जैन में ही किया था।

नागा साधुओं का रूप :

Kumbh melaकुम्भ मेले में शैवपंथी नागा साधुओं को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती है। कुम्भ के सबसे पवित्र शाही स्नान में सबसे पहले स्नान का अधिकार इन्हें ही मिलता है।  नागा साधु अपने पूरे शरीर पर भभूत मले, निर्वस्त्र रहते हैं। उनकी बड़ी-बड़ी जटाएं भी आकर्षण का केंद्र रहती है। हाथों में चिलम लिए और चरस का कश लगाते हुए इन साधुओं को देखना अजीब लगता है। मस्तक पर आड़ा भभूत लगा, तीनधारी तिलक लगा कर धूनी रमा कर, नग्न रह कर और गुफ़ाओं में तप करने वाले नागा साधुओं का उल्लेख पौराणिक ग्रंथों में भी मिलता है।

 

 

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