कांवड़ यात्रा – जानें शिव कांवड़ परंपरा के इतिहास और महत्व के बारे में

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कांवड़ यात्रा 2018 – Kavad Yatra Story & Importance

भगवान शिव की आराधना के लिये फाल्गुन की महाशिवरात्रि के पश्चात सावन शिवरात्रि भी बाला भोलेनाथ की आराधना का खास पर्व माना जाता है। सावन माह तो विशेष रूप से भगवान शिव का प्रिय मास माना जाता है। दोनों ही अवसरों पर शिवभक्त गोमुख, ऋषिकेश से हरिद्वार तक से पदयात्रा करते हुए गंगाजल लाकर शिवरात्रि के दिन अपने आराध्य भगवान शिवशंकर का जलाभिषेक करते हैं। यही यात्रा कांवड़ यात्रा (Kanwar Yatra) कही जाती है। सावन के महीने में बरसात का मौसम होता है इसलिये शिवभक्त इस समय अधिक मात्रा में कांवड़ लेकर आते हैं। प्रशासन से लेकर स्थानीय नागरिकों द्वारा शिवभक्तों की सेवा हेतु जगह-जगह पर शिविर भी लगाये जाते हैं। कांवड़ यात्रा के भी भिन्न-भिन्न रूप हैं। आइये जानते हैं कांवड़ यात्रा के महत्व के बारे में …

कांवड़ का महत्व

भगवान भोलेनाथ की छवि ऐसे देव के रूप में मानी जाती है जिन्हें प्रसन्न करने के लिये केवल सच्ची श्रद्धा से थोड़े से प्रयास करने होते हैं। भोलेनाथ अपने भक्तों पर इसी से कृपा बरसा देते हैं। भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये फाल्गुन और श्रावण मास में कांवड़ लाने की बहुत अधिक मान्यता है। हर साल करोड़ों शिवभक्त कांवड़ लेकर आते हैं। मान्यता है कि इससे शिवभक्तों के बिगड़े या अटके हुए कार्य संपन्न हो जाते हैं। भगवान शिव शंकर की कृपा से शिवभक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

कैसे शुरू हुई कांवड़ परंपरा

कांवड़ परंपरा के आरंभ होने की कई कथाएं मिलती हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

माना जाता है कि सर्वप्रथम भगवान परशुराम ने कांवड़ के जरिये गंगाजल लाकर भगवान शिव का जलाभिषेक किया था। वहीं मान्यता यह भी है कि कांवड़ की परंपरा श्रवण से शुरु हुई थी जिसने अपने नेत्रहीन माता-पिता की इच्छानुसार गंगा स्नान करवाया था। इसके लिये श्रवण  अपने माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार लेकर गये थे।

वहीं कुछ मत समुद्र मंथन से भी जुड़े हैं इनके अनुसार मान्यता यह है कि समुद्र मंथन से निकले विष को भगवान शिव ने अपने कंठ में धारण तो कर लिया जिससे वे नीलकंठ भी कहलाए लेकिन इससे भगवान शिव पर बहुत सारे नकारात्मक प्रभाव पड़ने लगे। इन्हें दूर करने के लिये उन्होंने चंद्रमा को अपने मस्तक पर धारण कर लिया। इसके साथ ही देवताओं ने उनका गंगाजल से अभिषेक किया। यह महीना  श्रावण का ही बताया जाता है।

इसी से मिलती जुलती अन्य मान्यता है कि नीलकंठ भगवान शिवशंकर पर विष के नकारात्मक प्रभाव होने लगे तो शिवभक्त रावण ने पूजा-पाठ करते हुए कांवड़ के जरिये गंगाजल लाकर भगवान शिव का जलाभिषेक किया जिससे भगवान शिव नकारात्मक प्रभावों से मुक्त हुए। मान्यता है कि तभी से कांवड़ की परंपरा का आरंभ हुआ।

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कांवड़ के प्रकार

कांवड़ में सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण तत्व या कहें कांवड़ का मूल गंगाजल होता है। क्योंकि गंगाजल से ही भगवान शिव का अभिषेक किया जाता है। गंगाजल को लोग अनेक प्रकार से लेकर आते हैं। इसमें दो तरीके प्रमुख हैं व्यक्तिगत रूप से कांवड़ लाना और सामूहिक रूप से कांवड़ लाना। पैदल चलते हुए कांवड़ लाना और दौड़कर कांवड़ लाना।

पैदल कांवड़ – पैदल कांवड़ अधिकतर व्यक्तिगत रूप से ही लाई जाती है। लेकिन कई बार अपने प्रियजन की असमर्थता के कारण उनके नाम से भी कुछ लोग कांवड़ लेकर आते हैं। इसमें कांवड़ यात्री को यह ध्यान रखना होता है कि जिस स्थल से उसे कांवड़ लेकर आनी है और जहां उसे भगवान शिव का जलाभिषेक करना है उसकी दूरी क्या है। उसी के अनुसार अपनी यात्री की योजना बनानी होती है। उसे शिवरात्रि तक अपने जलाभिषेक स्थल तक पंहुचना होता है। पैदल कांवड़ यात्री कुछ समय के लिये रास्ते में विश्राम भी कर सकते हैं।

डाक कांवड़ – डाक कांवड़ बहुत तेजी से लाई जाने वाली कांवड़ है इसमें कांवड़ियों का एक समूह होता है जो रिले दौड़ की तरह दौड़ते हुए एक दूसरे को कांवड़ थमाते हुए जल प्राप्त करने के स्थल से जलाभिषेक के स्थल तक पंहुचता है। इसमें कांवड़ यात्रियों को रूकना नहीं होता और लगातार चलते रहना पड़ता है। जब एक थोड़ी थकावट महसूस करता है तो दूसरा कांवड़ को थाम कर आगे बढ़ने लगता है।

कावंड़ एक सजी-धज्जी, भार में हल्कि पालकी होती है जिसमें गंगाजल रखा होता है। हालांकि कुछ लोग पालकी को न उठाकर मात्र गंगाजल लेकर भी आ जाते हैं। मान्यता है कि जो जितनी कठिनता से जितने सच्चे मन से कांवड़ लेकर आता है उसपर भगवान शिव की कृपा उतनी ही अधिक होती है।

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