मूल नक्षत्र क्या है और मूल नक्षत्र में जन्मे जातक उसका क्या प्रभाव पड़ता है ?

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मूल नक्षत्र – Mula Nakshatra In Hindi

मूल नक्षत्र क्या है, मूल नक्षत्र का कुंडली पर प्रभाव, मूल नक्षत्र में जन्मे व्यक्ति कैसे होते है, मूल नक्षत्र वाले व्यक्ति का स्वभाव कैसा होता है, मूल नक्षत्र के उपाय, मूल नक्षत्र के प्रभाव से बचने के ज्योतिष उपाय, मूल नक्षत्र और उनके प्रभाव, मूल नक्षत्र में जन्मे जातक, मूल नक्षत्र में जन्म लेना, Moola Nakshatra, Moola Nakshatra Effects and Shanti, Mula Nakshatra Birth


व्यक्ति की कुंडली में मूल नक्षत्र का महत्व

भारतीय ज्योतिष के अनुसार, कुल 27 नक्षत्र होते हैं जिनमें अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद और रेवती है। जबकि 28वां नक्षत्र अभिजीत है।

मूल नक्षत्र क्या है

मूल भी इन्ही नक्षत्रों में से एक है जिसे 19वां स्थान मिला है। मूल का अर्थ होता है जड़, जिसके चारो चरण धनु राशि में आते हैं। केतु और गुरु धनु राशि में उच्च स्थान पर होते हैं। मूल नक्षत्र का स्वामी केतु है जबकि राशि के स्वामी गुरु है इसलिए मूल नक्षत्र में जन्मे व्यक्ति पर केतु और गुरु का प्रभाव जीवन भर बना रहता है।

जहाँ एक तरफ केतु जीवन में नकारात्मकता को बढ़ाता है वहीं गुरु जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का विकास करता है। केतु को छाया का गृह भी कहा जाता है जिसका धड़ राहु है। धनु राशि का स्वामी गुरु है इसीलिए मूल नक्षत्र में जन्मे जातक को धार्मिक और विष्णु, हनुमान जी का भक्त बना रहना चाहिए।

मूल नक्षत्र का व्यक्ति पर प्रभाव

कहा जाता है व्यक्ति के जीवन और उसका आचार-विचार, ग्रह और नक्षत्रों के हिसाब से होता है। अर्थात जो लोग शुभ नक्षत्र में जन्म लेते हैं वे शांत स्वभाव के होते हैं जबकि अशुभ नक्षत्र में जन्म लेने वाले थोड़े गुस्सैल और चिड़चिड़े हो जाते हैं।

मूल नक्षत्र भी उन्ही नक्षत्रों में से एक है। माना जाता है मूल नक्षत्र ईमानदार परंतु जिद्दी स्वभाव के होते हैं। आमतौर ये लक्ष्य केंद्रित होते हैं और कठिन से कठिन लक्ष्य को भी प्राप्त करने का प्रयास करते रहते हैं।

मूल नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति क्या करें?

नक्षत्र के सकारात्मक प्रभावों के लिए मूल नक्षत्र में जन्म लेने वाले जातको को नियमित रूप से निम्नलिखित उपाय या पूजा करनी चाहिए।

  • पीपल के वृक्ष में प्रसाद और जल चढ़ाना चाहिए।
  • सदैव हनुमान जी की उपासना करनी चाहिए।
  • बाल्यावस्था में रोजाना सूर्य को जल अर्पित करना चाहिए।
  • गुरु और गायत्री उपासना भी नकारात्मक प्रभाव को खत्म करती है।
  • शिव जी, हनुमान जी और गणेश जी की उपासना करें।

ऊपर बताए गए सभी उपायों में से कोई भी एक उपाय करके भी मूल नक्षत्र के विपरीत प्रभावों से बचा जा सकता है।

मूल नक्षत्र का व्यक्ति पर सकारात्मक प्रभाव

मूल नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति के विचार दृढ होते हैं, इनमे निर्णय लेने की क्षमता भी बहुत अच्छी होती है। ये जातक पढाई-लिखाई में अव्वल होते हैं और इनकी बुद्धि बहतु टीवी होती है। इन लोगों को शोध कार्यों में सफलता मिल सकती है। कुशल होने के साथ-साथ ये लोग बहतु अच्छे वक्ता भी होते हैं। इनकी भावुक प्रवृति इन्हे दयालु और सबका भला करने वाला बनाती है।

मूल नक्षत्र का व्यक्ति पर नकारात्मक प्रभाव

मूल नक्षत्र का स्वामी केतु होता है और राशि का स्वामी गुरु होता है। यदि व्यक्ति की कुंडली में केतु और गुरु की स्थिति अच्छी नहीं होती तो जातक बहुत जिद्दी और गुसैल हो जाते हैं। ऐसे लोगों की रूचि विनाशकारी कार्यों में बढ़ सकती है। इनमे इर्षा की भावना भी हो सकती है।

खराब स्थिति होने के चलते, ये लोग अपनी शक्तियों का दुरूपयोग भी करने लगते हैं। कई बार ऐसे लोग गलत कार्यों में फंसकर अपना करियर बर्बाद कर लेते हैं। इन लोगों के पैरों में हमेशा तकलीफ बनी रहती है। ऐसे जातक के माता-पिता यदि पूरी तरह भगवान विष्णु और हनुमानजी की शरण में रहें तो जातक का जीवन अच्छा हो सकता है।

मूल नक्षत्र के दुष्प्रभावों से बचने के उपाय

यदि किसी बालक की कुंडली में मूल नक्षत्र का दुष्प्रभाव है तो निम्नलिखित उपाय करके बच्चे को मूल नक्षत्र के नकरात्मक प्रभावों से बचाया जा सकता है।

  • जन्म के 27 दिन बाद दोबारा मूल नक्षत्र आने पर नक्षत्र शांति की पूजा करा लें।
  • बच्चे के 8 वर्ष तक होने तक माता-पिता रोजाना नियम पूर्वक ॐ नमः शिवाय का जाप करें।
  • यदि उम्र 8 वर्ष से ज्यादा हो गयी है तो मूल नक्षत्र शांति पूजा की जरूरत नहीं होती। क्योंकि आमतौर पर संकट केवल 8 वर्ष की आयु तक ही रहता है।
  • अगर मूल नक्षत्र के नकारात्मक प्रभाव के कारण बच्चे का स्वास्थ्य खराब रहता है या बच्चा कमजोर है तो बालक की
  • माता को पूर्णिमा का उपवास रखना चाहिए।
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स्वास्थ्य का महत्व समझती एक अद्भुत कहानी

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स्वास्थ्य का महत्व समझती एक अद्भुत कहानी एक शहर में एक अमीर व्यक्ति रहता था । वह पैसे से तो बहुत धनी था लेकिन शरीर और सेहत से बहुत ही गरीब । दरअसल वह हमेशा पैसा कमाने की ही सोचता रहता था, दिन रात पैसा कमाने के लिए मेहनत करता लेकिन अपने शरीर के लिए उसके पास बिल्कुल समय नहीं था। फलस्वरूप अमीर होने के बावजूद उसे कई नई-नई प्रकार की बिमारियों ने घेर लिया और शरीर भी धीरे धीरे कमजोर होता जा रहा था, लेकिन वह इस सब पर ध्यान नहीं देता और हमेशा पैसे कमाने में ही लगा

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हाथ की रेखाओ से लगाए पता, किस देवी देवता की पूजा से प्राप्‍त होगा उत्‍तम फल

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हस्त रेखा ज्ञान – Palmistry Reading Hindi

सनातन धर्म में 33 करोड़ देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। लेकिन ये आप कैसे जान पाएंगे किस देवता की पूजा करना आपके लिए अधिक मंगलकारी हो सकता है। इसका एक तरीका है आपकी हस्‍तरेखाएं। हस्‍तरेखाएं देखकर आप जान सकते हैं कि आपको किसकी पूजा करने से प्राप्‍त होगा शुभ फल…

ऐसा हो तो करें शनि देव की पूजा

यदि हाथ में शनि की उंगली सीधी हो और शनि ग्रह मध्‍य हो तो ऐसे व्‍यक्तियों को शनि देव की स्‍तुति रोजाना करनी चाहिए।

भगवान शिव की पूजा करना फलकारी

यदि हृदय रेखा पर त्रिशूल बनता हो और उंगलियां टेढ़ी-मेड़ी हों तो ऐसे लोगों को भगवान शिव की आराधना करनी चाहिए। इससे उनके जीवन के सभी कष्‍ट दूर हो जाएंगे।

हनुमानजी की पूजा करें ये जातक

यदि हृदय रेखा के अंत पर एक शाखा गुरु पर्वत पर जाती हो तो इन्‍हें हनुमानजी की पूजा करने से सुख शांति की प्राप्ति हो सकती है और उनके जीवन की सारी बाधाएं दूर हो सकती हैं।

भाग्‍य रेखा खंडित होने पर मां लक्ष्‍मी का सहारा

भाग्‍य रेखा खंडित हो और इसमें दोष हो ऐसे लोगों को मां लक्ष्‍मी की आराधना करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। उनकी आर्थिक समस्‍याओं का निदान होता है और घर में धन वैभव का इजाफा होता है।

सूर्य ग्रह दबा हुआ हो तो

यदि हाथ में सूर्य ग्रह दबा हुआ हो तो व्‍यक्ति को शिक्षा में पूर्ण सफलता नहीं मिल पाती है। ऐसे में उन्‍हें सूर्य देवता की आराधना करने से शुभ फल की प्राप्ति हो सकती है।

जीवन रेखा और भाग्‍य रेखा के साथ हो ऐसा

यदि जीवन रेखा और भाग्‍य रेखा को कई मोटी रेखाएं काटें तो ऐसे लोगों को हर काम में असफलता मिलने की आशंका अधिक होती है। ऐसे में मां लक्ष्‍मी का जप इनकी समस्‍या का निवारण कर सकता है।

जीवन रेखा टूट रही हो तो

यदि सभी ग्रह सामान्‍य हो और जीवन रेखा कुछ दूर चलने के बाद टूट जाए तो ऐसे व्‍यक्ति की सड़क दुर्घटना में मृत्‍यु होने की आशंका अधिक रहती है। इस अवस्‍था में भगवान शिव की पूजा करने इनका संकट टल सकता है।

ऐसा होने पर करें मां दुर्गा की पूजा

यदि हृदय रेखा खंडित हो और साथ में हृदय रेखा से काफी सारी शाखाएं मस्तिष्‍क रेखा पर आ रही हों तो इन्‍हें मां दुर्गा का पूजन करने से लाभ की प्राप्ति हो सकती है।

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गोमुखासन – स्त्री व पुरुषो को आकर्षक और सौन्दर्य प्रदान करने वाला आसन

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गोमुखासन – Gomukhasana in Hindi

अनियमित खान-पान या कुछ अन्य कारणों से कई बार स्त्री व पुरुषो का शरीर पूरी तरह विकसित नहीं हो पाता है। ऐसे में कई बार शरीर का सही आकृति  में न होना भी स्त्री व पुरुषो के आत्मविश्वास में कमी का कारण बन जाता है। सुडोल शरीर के लिए योगासन सबसे अच्छा तरीका है। ऐसा ही एक आसन है गोमुखासन जो स्त्री व पुरुषो आकर्षक और सौन्दर्य प्रदान करता है। यह स्वास्थ्य के लिए भी की लाभकारी हैं। इस आसन में व्यक्ति की आकृति गाय के मुखके समान बन जाती है इसीलिए इसे गोमुखासन कहते हैं। स्वाध्याय एवं भजन, स्मरण आदि में इस आसन का प्रयोग किया जा सकता है।

गोमुखासन विधि – Gomukhasana Steps

किसी शुद्ध वातावरण वाले स्थान पर कंबल आदि बिछाकर बैठकर जाएं। अब अपने बाएं पैर को घुटनों से मोड़कर दाएं पैर के नीचे से निकालते हुए एड़ी को पीछे की तरफ  नितम्ब के पास सटाकर रखें। अब दाएं पैर को भी बाएंपैर के ऊपर रखकर एड़ी को पीछे नितम्ब के पास सटाकर रखें। इसके बाद बाएं हाथों को कोहनी से मोड़कर कमर केबगल से पीठ के पीछे लें जाएं तथा दाहिने हाथ को कोहनी से मोड़कर कंधे के ऊपर सिर के पास पीछे की ओर ले जाएं।

दोनों हाथों की उंगलियों को हुक की तरह आपस में फंसा लें। सिर व रीढ़ को बिल्कुल सीधा रखें और सीने को भीतानकर रखें। इस स्थिति में कम से कम 2 मिनिट रुकें।फिर हाथ व पैर की स्थिति बदलकर दूसरी तरफ भी इस आसनको इसी तरह करें। इसके बाद 2 मिनट तक आराम करें और पुन: आसन को करें। यह आसन दोनों तरफ से 4-4 बारकरना चाहिए। सांस सामान्य रखेंगे।

गोमुखास करने की अवधि

हाथों के पंजों को पीछे पकड़े रहने की सुविधानुसार 30 सेकंड से एक मिनट तक इसी स्थिति में रहें । इसआसन के चक्र को दो या तीन बार अपनी सेहत या सुविधानुसार  दोहरा सकते हैं |

गोमुखास करने से लाभ – Gomukhasana Benefits

यह आसन दमे के रोगियों के लिए रामबाण है। इस आसन से धातु की दुर्बलता, मधुमेह, लो ब्लेङप्रेशर औरहार्नियाँ में भी लाभ होता है। यह स्त्रियों के अनियमित मासिक धर्म एंव ल्यूकोरिया की समस्या को दूर करने वालाआसन भी है।इससे हाथ-पैर की मांसपेशियां चुस्त और मजबूत बनती है। तनाव दूर होता है। कंधे और गर्दन कीअकड़न को दूरकर कमर, पीठ दर्द आदि में भी लाभदायक। छाती को चौड़ा कर फेफड़ों की शक्ति को बढ़ाता है जिससे श्वास संबंधी रोग में लाभ मिलता है।

यह आसन सन्धिवात, गठीया, कब्ज, अंडकोषवृद्धि, हर्निया, यकृत, गुर्दे, धातु रोग, बहुमूत्र, मधुमेह एवं स्त्री रोगों मेंबहुत ही लाभदायक सिद्ध होता है।

गोमुखास करते समय सावधानी – Gomukhasana Precautions 

हाथ, पैर और रीढ़ की हड्डी में कोई गंभीर रोग हो तो यह आसन न करें। जबरदस्ती पीठ के पीछे हाथों के पंजों को पकड़ने का प्रयास न करें

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नवग्रह पूजन – ग्रहों की दशा और विपरीत चाल को व्यवस्थित करने हेतु घर बैठे सरल समाधान

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नवग्रह पूजन – Navagraha Pujan Vidhi Hindi

ज्योतिषशास्त्र के अनुसार ग्रहों की दशा और उनकी चाल का व्यक्ति के जीवन पर प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति की जन्मतिथि, जन्मस्थान और जन्म के समय के अनुसार कुंडली बनाई जाती है जिसमे 9 ग्रहों की दशा का विवरण होता है और उन्ही ग्रहों की दशाओं की देखकर यह अनुमान लगाया जाता है की व्यक्ति का भविष्य कैसा होगा? यदि व्यक्ति की कुंडली में किसी प्रकार का दोष होता है तो यह उसे प्रभावित करता है।

हमारे सौरमंडल में कुल 9 ग्रह है जिनमे सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहू और केतु शामिल है। हालांकि विज्ञान की दृष्टि से केतु का सौरमंडल में कोई विशेष योगदान नहीं है लेकिन ज्योतिषशास्त्र में इसे बहुत ही प्रभावशाली ग्रह माना जाता है। ग्रहों की जानकारी ज्योतिषशास्त्र में मिलती है और यदि किसी व्यक्ति के किसी ग्रह की दशा खराब हो या उनका ग्रह व्यक्ति पर विपरीत प्रभाव डाल रहा हो तो उन्हें सही करने का उपाय भी ज्योतिषशास्त्र में ही मिलता है। आज हम आपको उन्ही के बारे में बतायेंगे।

नवग्रह पूजन क्यों जरुरी होता है

हमारे जीवन में जो भी अच्छा या बुरा हो रहा होता है उसके पिछे ग्रहों की चाल एक बड़ा कारण है। इन तमाम उतार चढ़ावों को रोकने के लिये और क्रोधित ग्रह को शांत करने के लिये धार्मिक व पौराणिक ग्रंथों में नव ग्रह यानि जीवन को प्रभावित करने वाले समस्त 9 ग्रहों की पूजा करने का विधान है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार राशियां 12 होती हैं। प्रत्येक राशि में प्रत्येक ग्रह अपनी गति से प्रवेश करते हैं।

इसे ग्रहों की चाल कहा जाता है एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करने पर भी अन्य राशियों पर उसका सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक जातक में प्रत्येक ग्रह के गुण भी पाये जाते हैं। जैसे सूर्य से स्वास्थ्य, चंद्र से सफलता तो मंगल सम्रद्धि प्रदान करता है। इसी तरह से हर ग्रह के अपने सूचक हैं जो हमारे जीवन को कहीं ना कहीं प्रभावित करते हैं।

मंत्रोच्चारण के जरिये इन ग्रहों को साधा जाता है और उनकी सही स्थापना की जाती है। कमजोर ग्रहों का बल प्राप्त करने के लिये कुछ विशेष उपाय भी ज्योतिषाचार्यों द्वारा सुझाये जाते हैं। इस प्रक्रिया को नवग्रह पूजा या नवग्रह पूजन कहा जाता है।

नवग्रह पूजा विधि

नवग्रह-पूजन के लिए सबसे पहले ग्रहों का आह्वान किया जाता है। उसके बाद उनकी स्थापना की जाती है। फिर बाएँ हाथ में अक्षत लेकर मंत्रोच्चारण करते हुए दाएँ हाथ से अक्षत अर्पित करते हुए ग्रहों का आह्वान किया जाता है। इस प्रकार सभी ग्रहों का आह्वान करके उनकी स्थापना की जाती है। इसके उपरांत हाथ में अक्षत लकेर मंत्र उच्चारित करते हुए नवग्रह मंडल में प्रतिष्ठा के लिये अर्पित करें। अब मंत्रोच्चारण करते हुए नवग्रहों की पूजा करें।

सूर्य पूजा विधि

सबसे पहले सूर्य का आह्वान किया जाता है क्योंकि सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं। रोली से रंगे हुए लाल अक्षत और लाल रंग के पुष्प लेकर निम्न मंत्र से सूर्य का आह्वान करें –

ॐ आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च ।
हिरण्येन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्‌ ॥

जपा कुसमसंकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम्‌ ।
तमोऽरिं सर्वपापघ्नं सूर्यमावाहयाम्यहम्‌ ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः कलिंगदेशोद्भव कश्यपगोत्र रक्तवर्ण भो सूर्य! इहागच्छ, इहतिष्ठ
ॐ सूर्याय नमः, श्री सूर्यमावाहयामि स्थापयामि च ।

भगवान शिव के पूजन के साथ नवग्रह पूजन का विशेष महत्व ग्रंथ-पुराणों में वर्णित है। नवग्रह-पूजन के लिए पहले ग्रहों का आह्वान करके उनकी स्थापना की जाती है। बाएँ हाथ में अक्षत लेकर निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए दाएँ हाथ से अक्षत अर्पित करें।    

चंद्र पूजा विधि

श्वेत अक्षत और पुष्प बाएँ हाथ में लेकर दाएँ हाथ से अक्षत और पुष्प छोड़ते हुए निम्न मंत्र से चंद्र का आह्वान करें-

ॐ इमं देवा असनप्न(गुँ) सुवध्वं महते क्षत्राय
महते ज्येष्ठ्याय महते जानराज्यायेन्द्रस्येंद्रियाय ।

इमममुष्य पुत्रममुष्यै पुत्रमस्यै विश एष वोऽमी
राजा सोमोऽस्माकं ब्राह्मणाना(गुँ); राजा ॥

दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णवसम्भवम्‌ ।
ज्योत्स्नापतिं निशानाथं सोममावाहयाम्यहम ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः यमुनातीरोद्धव आत्रेय गोत्र शुक्लवर्ण भो सोम! इहागच्छ, इहतिष्ठ

मंगल पूजा विधि

लाल पुष्प और लाल अक्षत दाएँ हाथ में लेकर बाएँ हाथ से छोड़ते हुए निम्न मंत्र से मंगल देवता का आह्वान करें-     

ॐ अग्निर्मूर्धा दिवः कुकुत्पतिः पृथिव्या अयम्‌।
अपा(गुँ)श्रेता(गुँ)सि जिन्वति ॥

धरणीगर्भसम्भूतं विद्युत्तेजस्समप्रभम्‌ ।
कुमारं शक्तिहस्तं च भौममावाहयाम्यहम्‌ ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः अवन्तिदेशोद्भव भारद्वाजगोत्र रक्तवर्ण भो भौम! इहागच्छ, इहतिष्ठ ॐ भौमाय नमः, भौममावाहयामि स्थापयामि च ।

बुध पूजा विधि

पीले व हरे रंग के अक्षत और पुष्प अर्पित करते हुए निम्न मंत्र से बुध देवता का आह्वान करें-

ॐ उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते स(गुँ)जेथामयं च ।
अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन्‌ विश्वे देवा जयमानश्च सीदत ॥

प्रियंगकलिकाभासं रूपेणाप्रतिमं बुधम ।
सौम्यं सौम्यगुणोपेतं बुधमावाहयाम्यहम्‌ ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः मगधदेशोद्भव आत्रेयगोत्र पीतवर्ण भो बुध! इहागच्छ, इहतिष्ठ
ॐ बुधाय नमः, बुधमावाहयामि, स्थापयामि च ।

बृहस्पति पूजा विधि

अष्टदल से अंकित बृहस्पति का आह्वान पीले रंग से रंगे अक्षत और पुष्प अर्पित कर करें-

ॐ बृहस्पते अति यदर्यो अर्हाद् द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु।
यद्दीदयच्छवसः ऋतप्रजात्‌ तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्‌ ॥

उपयामगृहीतोऽसि बृहस्पतये त्वैष ते योनि बृहस्पतये त्व ।
देवानां च मनीनां च गुरुं काञ्चनसन्निभम्‌ ।
वंदनीयं त्रिलोकानां गुरुमावाहयाम्यंहम्‌ ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः सिन्धुशोद्धव आडिगंरसगोत्र पीतवर्ण भी गुरो! इहागच्छ, इहतिष्ठ
ॐ बृहस्पतये नमः, बृहस्पतिमावाहयामि स्थापयामि च ।

शुक्र पूजा विधि

शुक्र भगवान का आह्वान करने के लिए श्वेत फूल और अक्षत देवता को अर्पित करते हुए निम्न मंत्र का उच्चारण करें

ॐ अन्नात्परिस्रुतो रसं ब्रह्मणा व्यपिबत्क्षत्रं पयः सोमं प्रजापतिः ।
ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपान(गुँ) शुक्रमन्धस इंद्रस्येद्रियमिदं पयोऽमृतं मधु ॥

हिमकुन्दमृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम्‌ ।
सर्वशास्त्रप्रवक्तारं भार्गवमावाहयाम्यमहम्‌ ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः भोजकटदेशोद्धव भार्गवगोत्र शुक्लवर्ण भो शुक्र! इहागच्छ, इहतिष्ठ
ॐ शुक्राय नमः, शुक्रमावाहयामि स्थापयामि च ।

शनि पूजा विधि

सूर्य पुत्र शनि का आह्वान करने के लिए काले रंग से रंगे अक्षत और काले फूल समर्पित करते हुए निम्न मंत्र का उच्चारण करें :

ॐ शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।
शंयोरपि स्रवन्तु नः ।

नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्‌ ।
छायामार्तण्डसम्भूतं शनिमावाहयाम्यहम्‌ ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः सौराष्ट्रदेशोद्धव कश्यपगोत्र कृष्णवर्ण भो शनैश्चर! इहागच्छ, इहतिष्ठ ॐ शनैश्चराय नमः, शनैश्चरमावाहयामि, स्थापयामि च ।

राहु पूजा विधि

नवग्रह में काले मगर की आकृति के रूप में राहु की पूजा की जाती है। काले रंगे अक्षत और फूलों को बाएँ हाथ में लेकर दाएँ हाथ से अर्पित करते हुए निम्न मंत्र बोलते हुए राहु का आह्वान करें –    

ॐ कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावधः सखा ।
कया शचिष्ठया वृता ॥

अर्धकायं महावीर्यं चंद्रादित्यविमर्दनम्‌ ।
सिंहिकागर्भसम्भूतं राहुमावाहयाम्यहम्‌ ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः राठिनपुरोद्धव पैठीनसगोत्र कृष्णवर्ण भो राहो! इहागच्छ, इहतिष्ठ ॐ राहवे नमः, राहुमावाहयामि स्थापयामि च ।

केतु पूजा विधि

केतु का आह्वान करने के लिए धूमिल अक्षत और फूल लेकर निम्न मंत्र का उच्चारण करें –

ॐ केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे । समुषद्धिरजायथाः ॥

पलाशधूम्रसगांश तारकाग्रहमस्तकम्‌ ।
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं केतु मावाहयाम्यहम्‌ ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः अंतवेदिसमुद्धव जैमिनिगोत्र धूम्रवर्ण भी केतो! इहागच्छ, इहतिष्ठ
ॐ केतवे नमः, केतुमावाहयामि स्थापयामि च ।

नवग्रह पूजा विधि

नवग्रहों के आह्वान और स्थापना के बाद हाथ में अक्षत लेकर निम्न मंत्र उच्चारित करते हुए नवग्रह मंडल में प्रतिष्ठा के लिए अर्पित करें।

ॐ मनो जूर्तिर्ज्षतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं ततनोत्वरिष्टं यज्ञ(गुँ)सममं दधातु।
विश्वे देवास इह मादयन्तामो3म्प्रतिष्ठा ॥

निम्न मंत्र से नवग्रहों का आह्वान करके उनकी पूजा करें :

अस्मिन नवग्रहमंडले आवाहिताः सूर्यादिनवग्रहादेवाः सुप्रतिष्ठिता वरदा भवन्तु ।

नवग्रह प्रार्थना

ॐ ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमिसतो बुधश्च गुरुश्च शुक्रः शनि राहुकेतवः सर्वेग्रहाः शांतिकरा भवन्तु ॥

सूर्यः शौर्यमथेन्दुरुच्चपदवीं सन्मंगलं मंगलः
सद्बुद्धिं च बुधो गुरुश्च गुरुतां शुक्र सुखं शं शनिः ।
राहुर्बाहुबलं करोतु सततं केतुः कुलस्यो नतिं
नित्यं प्रीतिकरा भवन्तु मम ते सर्वेऽनकूला ग्रहाः ॥

इस प्रकार नवग्रहों को शुभ कार्य की सफलता हेतु आव्हान एवं प्रतिष्ठा करने के पश्चात्‌ भगवान शिव का पूजन प्रारंभ होता है।

नवग्रह पूजन के पश्चात

  • सभी ९ ग्रहो की पूजा मंत्रोउच्चारण के साथ करने के बाद आपको नवग्रह देवता को गंगाजल, जल, अषटगंध, दूध,घी, शहद, शक्कर से स्नान करवाना है |
  • उसके बाद नवग्रह देवता को वस्त्र चढ़ाये, रक्षासूत्र चढ़ाये, यज्ञोपवीत यानि जनेऊ चढ़ाये, चन्दन, रोली, अबीर, अक्षत, दही, हल्दी, मीठा, पुष्प, पुष्पमाला, बेलपत्र, दुर्बा, तथा तुलसीदल ताजा फल, सूखा फल, घी, शहद, मीठा व सिन्दूर चढ़ाये |
  • उसके बाद नवग्रह देवता का आचमन करना है |
  • उसके बाद उन्हें सुपारी, पान का पत्ता,लौंग,इलायची तथा इत्र चढ़ाये |
  • फिर आप अगरबत्ती,कपूर,धूपदीप दिखाए कर नवग्रह मंत्र का जप करके प्रदक्षिणा दे |
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दरबार में राधा रानी के, दुःख दर्द मिटाये जाते है …

सोच का फ़र्क Change Your Attitude & Perspective {Hindi}

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एक शहर में एक धनी व्यक्ति रहता था, उसके पास बहुत पैसा था और उसे इस बात पर बहुत घमंड भी था| एक बार किसी कारण से उसकी आँखों में इंफेक्शन हो गया| आँखों में बुरी तरह जलन होती थी, वह डॉक्टर के पास गया लेकिन डॉक्टर उसकी इस बीमारी का इलाज नहीं कर पाया| सेठ के पास बहुत पैसा था, उसने देश विदेश से बहुत सारे नीम- हकीम और डॉक्टर बुलाए| एक बड़े डॉक्टर ने बताया कि आपकी आँखों में एलर्जी है| आपको कुछ दिन तक सिर्फ़ हरा रंग ही देखना होगा, अगर कोई और रंग देखेंगे तो आपकी

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शास्त्रानुसार पितृ श्राद्ध करने के 24 नियम जिसके उपरांत श्राद्ध सम्पूर्ण माना जायेगा

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पितृ श्राद्ध करने के 24 नियम – Shradh 2018

धर्म ग्रंथों के अनुसार श्राद्ध के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। वर्ष के किसी भी मास तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है। पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है। इसी दिन से महालय (श्राद्ध) का प्रारंभ भी माना जाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए।

पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्षभर तक प्रसन्न रहते हैं। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है।

Pitru Shraddha

श्राद्ध में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्ड दान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। इसी आशा के साथ वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं। यही कारण है कि हिंदू धर्म शास्त्रों में प्रत्येक हिंदू गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है। श्राद्ध से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं। मगर ये बातें श्राद्ध करने से पूर्व जान लेना बहुत जरूरी है क्योंकि कई बार विधिपूर्वक श्राद्ध न करने से पितृ श्राप भी दे देते हैं। आज हम आपको श्राद्ध से जुड़ी कुछ विशेष बातें बता रहे हैं, जो इस प्रकार हैं-

1- श्राद्धकर्म में गाय का घी, दूध या दही काम में लेना चाहिए। यह ध्यान रखें कि गाय को बच्चा हुए दस दिन से अधिक हो चुके हैं। दस दिन के अंदर बछड़े को जन्म देने वाली गाय के दूध का उपयोग श्राद्ध कर्म में नहीं करना चाहिए।

2- श्राद्ध में चांदी के बर्तनों का उपयोग व दान पुण्यदायक तो है ही राक्षसों का नाश करने वाला भी माना गया है। पितरों के लिए चांदी के बर्तन में सिर्फ पानी ही दिए जाए तो वह अक्षय तृप्तिकारक होता है। पितरों के लिए अर्घ्य, पिण्ड और भोजन के बर्तन भी चांदी के हों तो और भी श्रेष्ठ माना जाता है।

3- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाते समय परोसने के बर्तन दोनों हाथों से पकड़ कर लाने चाहिए, एक हाथ से लाए अन्न पात्र से परोसा हुआ भोजन राक्षस छीन लेते हैं।

4- ब्राह्मण को भोजन मौन रहकर एवं व्यंजनों की प्रशंसा किए बगैर करना चाहिए क्योंकि पितर तब तक ही भोजन ग्रहण करते हैं जब तक ब्राह्मण मौन रहकर भोजन करें।

5- जो पितृ शस्त्र आदि से मारे गए हों उनका श्राद्ध मुख्य तिथि के अतिरिक्त चतुर्दशी को भी करना चाहिए। इससे वे प्रसन्न होते हैं। श्राद्ध गुप्त रूप से करना चाहिए। पिंडदान पर साधारण या नीच मनुष्यों की दृष्टि पहने से वह पितरों को नहीं पहुंचता।

6- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाना आवश्यक है, जो व्यक्ति बिना ब्राह्मण के श्राद्ध कर्म करता है, उसके घर में पितर भोजन नहीं करते, श्राप देकर लौट जाते हैं। ब्राह्मण हीन श्राद्ध से मनुष्य महापापी होता है।

7- श्राद्ध में जौ, कांगनी, मटर और सरसों का उपयोग श्रेष्ठ रहता है। तिल की मात्रा अधिक होने पर श्राद्ध अक्षय हो जाता है। वास्तव में तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं। कुशा (एक प्रकार की घास) राक्षसों से बचाते हैं।

8- दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए। वन, पर्वत, पुण्यतीर्थ एवं मंदिर दूसरे की भूमि नहीं माने जाते क्योंकि इन पर किसी का स्वामित्व नहीं माना गया है। अत: इन स्थानों पर श्राद्ध किया जा सकता है।

9- चाहे मनुष्य देवकार्य में ब्राह्मण का चयन करते समय न सोचे, लेकिन पितृ कार्य में योग्य ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए क्योंकि श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राह्मणों द्वारा ही होती है।

10- जो व्यक्ति किसी कारणवश एक ही नगर में रहनी वाली अपनी बहिन, जमाई और भानजे को श्राद्ध में भोजन नहीं कराता, उसके यहां पितर के साथ ही देवता भी अन्न ग्रहण नहीं करते।

11- श्राद्ध करते समय यदि कोई भिखारी आ जाए तो उसे आदरपूर्वक भोजन करवाना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसे समय में घर आए याचक को भगा देता है उसका श्राद्ध कर्म पूर्ण नहीं माना जाता और उसका फल भी नष्ट हो जाता है।

12- शुक्लपक्ष में, रात्रि में, युग्म दिनों (एक ही दिन दो तिथियों का योग)में तथा अपने जन्मदिन पर कभी श्राद्ध नहीं करना चाहिए। धर्म ग्रंथों के अनुसार सायंकाल का समय राक्षसों के लिए होता है, यह समय सभी कार्यों के लिए निंदित है। अत: शाम के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए।

13- श्राद्ध में प्रसन्न पितृगण मनुष्यों को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष और स्वर्ग प्रदान करते हैं। श्राद्ध के लिए शुक्लपक्ष की अपेक्षा कृष्णपक्ष श्रेष्ठ माना गया है।

14- रात्रि को राक्षसी समय माना गया है। अत: रात में श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए। दोनों संध्याओं के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए। दिन के आठवें मुहूर्त (कुतपकाल) में पितरों के लिए दिया गया दान अक्षय होता है।

15- श्राद्ध में ये चीजें होना महत्वपूर्ण हैं- गंगाजल, दूध, शहद, दौहित्र, कुश और तिल। केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है। सोने, चांदी, कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल उपयोग की जा सकती है।

16- तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णु लोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।

17- रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं। आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।

18– चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।

19- श्राद्ध तिथि के पूर्व ही यथाशक्ति विद्वान ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलावा दें। श्राद्ध के दिन भोजन के लिए आए ब्राह्मणों को दक्षिण दिशा में बैठाएं।

20- पितरों की पसंद का भोजन दूध, दही, घी और शहद के साथ अन्न से बनाए गए पकवान जैसे खीर आदि है। इसलिए ब्राह्मणों को ऐसे भोजन कराने का विशेष ध्यान रखें।

21- तैयार भोजन में से गाय, कुत्ते, कौए, देवता और चींटी के लिए थोड़ा सा भाग निकालें। इसके बाद हाथ जल, अक्षत यानी चावल, चन्दन, फूल और तिल लेकर ब्राह्मणों से संकल्प लें।

22- कुत्ते और कौए के निमित्त निकाला भोजन कुत्ते और कौए को ही कराएं किंतु देवता और चींटी का भोजन गाय को खिला सकते हैं। इसके बाद ही ब्राह्मणों को भोजन कराएं। पूरी तृप्ति से भोजन कराने के बाद ब्राह्मणों के मस्तक पर तिलक लगाकर यथाशक्ति कपड़े, अन्न और दक्षिणा दान कर आशीर्वाद पाएं।

23- ब्राह्मणों को भोजन के बाद घर के द्वार तक पूरे सम्मान के साथ विदा करके आएं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों के साथ-साथ पितर लोग भी चलते हैं। ब्राह्मणों के भोजन के बाद ही अपने परिजनों, दोस्तों और रिश्तेदारों को भोजन कराएं।

24- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है। पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में सपिंडों ( एक ही परिवार के) को श्राद्ध करना चाहिए। एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है।

भविष्य पुराण के अनुसार 12 प्रकार के श्राद्ध –

1- नित्य, 2- नैमित्तिक, 3- काम्य, 4- वृद्धि, 5- सपिण्डन, 6- पार्वण, 7- गोष्ठी, 8- शुद्धर्थ, 9- कर्मांग, 10- दैविक, 11- यात्रार्थ, 12- पुष्टयर्थ

श्राद्ध के प्रमुख अंग –

तर्पण- इसमें दूध, तिल, कुशा, पुष्प, गंध मिश्रित जल पितरों को तृप्त करने हेतु दिया जाता है। श्राद्ध पक्ष में इसे नित्य करने का विधान है।

भोजन व पिण्ड दान- पितरों के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन दिया जाता है। श्राद्ध करते समय चावल या जौ के पिण्ड दान भी किए जाते हैं।

वस्त्रदानवस्त्र दान देना श्राद्ध का मुख्य लक्ष्य भी है।

दक्षिणा दान- यज्ञ की पत्नी दक्षिणा है जब तक भोजन कराकर वस्त्र और दक्षिणा नहीं दी जाती उसका फल नहीं मिलता।

http://bit.ly/2QSEGwe http://bit.ly/2pnaflz Bhaktisanskar.com – भक्ति और अध्यात्म का संगम शास्त्रानुसार पितृ श्राद्ध करने के 24 नियम जिसके उपरांत श्राद्ध सम्पूर्ण माना जायेगा

पितृपक्ष श्राद्ध 2018 – जानिए श्राद्ध करने के महत्व, विधि, तिथि और नियम

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पितृ पक्ष श्राद्ध 2018 – Shradh Date 2018 Calendar

पितृ पक्ष 2018 : 2018 में पितृ पक्ष (श्राद्ध) 24 सितंबर 2018 सोमवार से शुरू हो रहे हैं। श्राद्ध पक्ष 8 अक्टूबर 2018 सोमवार को सर्वपितृ अमावस्या को खत्म होगा। जिसके बाद दुर्गा पूजा नवरात्रि 2018 प्रारंभ होगी।

श्राद्ध क्या है ? 

ब्रह्म पुराण के अनुसार जो भी वस्तु उचित काल या स्थान पर पितरों के नाम उचित विधि द्वारा ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक दिया जाए वह श्राद्ध कहलाता है । या यु कहे की पितरों को प्रसन्न करने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए वर्ष के 16 दिनों को श्राद्धपक्ष कहा जाता है। श्राद्धपक्ष आश्विन माह के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक 15 का होता है और इसमें पूर्णिमा के श्राद्ध के लिए भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को भी शामिल किया जाता है। इस तरह श्राद्धपक्ष कुल 16 दिनों का हो जाता है |

भारत में 24 सितंबर से पितृ पक्ष की शुरूआत होगी,  इस साल श्राद्ध 24 सितंबर से शुरू होकर 8 अक्टूबर 2018 तक चलेंगे. ऐसा माना जाता है श्राद्ध कर अपने पितरों को मृत्यु च्रक से मुक्त कर उन्हें मोक्ष प्राप्त करने में मदद करता है। इन सोलह दिनों में धरती पर रहने वाले मनुष्य अपने मृत परिजनों यानी पितरों के निमित्त पिंड दान, तर्पण, ब्राह्मण भोज, गरीबों को दान आदि जैसे कर्म करते हैं ताकि पितर प्रसन्न होकर उन्हें शुभ आशीर्वाद प्रदान करें।

हिन्दू धर्म और संस्कृति में ऐसी मान्यता है कि पितृगण पितृपक्ष में पृथ्वी पर आते हैं और 15 दिनों तक पृथ्वी पर रहने के बाद अपने लोक लौट जाते हैं। हिन्दू धर्म में बताया गया है कि पितृपक्ष के दौरान पितृ अपने परिजनों के आस-पास रहते हैं, इसलिए इन दिनों कोई भी ऐसा काम नहीं करें जिससे पितृगण नाराज हों। पितरों को खुश रखने के लिए पितृ पक्ष में कुछ बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए। पितृपक्ष के दौरान , जामाता, भांजा, मामा, गुरु, नाती को भोजन कराना चाहिए। इससे पितृगण अत्यंत प्रसन्न होते हैं, भोजन  करवाते समय भोजन का पात्र दोनों हाथों से पकड़कर लाना चाहिए अन्यथा भोजन का अंश राक्षस ग्रहण कर लेते हैं, जिससे ब्राह्मणों द्वारा अन्न ग्रहण करने के बावजूद पितृगण भोजन का अंश ग्रहण नहीं करते हैं।

पितृ पक्ष में द्वार पर आने वाले किसी भी जीव-जंतु को मारना नहीं चाहिए बल्कि उनके योग्य भोजन का प्रबंध करना चाहिए। हर दिन भोजन बनने के बाद एक हिस्सा निकालकर गाय, कुत्ता, कौआ अथवा बिल्ली को देना चाहिए। मान्यता है कि इन्हें दिया गया भोजन   सीधे पितरों को प्राप्त हो जाता है। शाम के समय घर के द्वार पर एक दीपक जलाकर पितृगणों का ध्यान करना चाहिए। हिन्दू धर्म के अनुसार जिस तिथि को जिसके पूर्वज गमन करते हैं, उसी तिथि को उनका श्राद्ध करना चाहिए।

क्या है श्राद्ध का महत्व

हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, हमारी तीन पूर्ववर्ती पीढ़ियां पितृ लोक में रहती हैं, जिसे स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का एक क्षेत्र माना जाता है. जिस पर मृत्यु के देवता यम का अधिकार होता है। ऐसा माना जाता है कि अगली पीढ़ी में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो पहली पीढ़ी उनका श्राद्ध करके उन्हें भगवान के करीब ले जाती है. सिर्फ आखिरी तीन पीढ़ियों को ही श्राद्ध करने का अधिकार होता है |

हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, महाभारत के दौरान, कर्ण की मृत्यु हो जाने के बाद जब उनकी आत्मा स्वर्ग में थी तो उन्हें बहुत सारा सोना और गहने दिए गए. हालांकि कर्ण भोजन के लिए खाना तलाश रहे थे उन्होंने देवता इंद्र से पूछा कि क्यों उन्हें भोजन की जगह सोना दिया गया. तब देवता इंद्र ने कर्ण को बताया कि उसने अपने जीवित रहते हुए पूरा जीवन सोना दान किया लेकिन श्राद्ध के दौरान अपने पूर्वजों को कभी भी खाना दान नहीं किया |

इसके बाद कर्ण ने इंद्र से कहा उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि उनके पूर्वज कौन थे और इसी वजह से वह कभी उन्हें कुछ दान नहीं कर सकें. इस सबके बाद कर्ण को उसकी गलती सुधारने का मौका दिया गया और उसे 15 दिन के लिए पृथ्वी पर वापस भेजा गया, जहां उसने अपने पूर्वजों को याद करते हुए उनका श्राद्ध कर उन्हें खाना-पानी दान किया. 15 दिन की इस अवधि को पितृ पक्ष कहा गया |

इस पक्ष में जो लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं, उनके समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं। जिन लोगों को अपने परिजनों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती, उनके लिए पितृ पक्ष में कुछ विशेष तिथियां भी निर्धारित की गई हैं, जिस दिन वे पितरों के निमित्त श्राद्ध कर सकते हैं।

पितृ पक्ष में विशेष तिथि अनुसार करे श्राद्ध

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा

इस तिथि को नाना-नानी के श्राद्ध के लिए सही बताया गया है। इस तिथि को श्राद्ध करने से उनकी आत्मा  को शांति मिलती है। यदि नाना-नानी के परिवार में कोई श्राद्ध करने वाला न हो और उनकी मृत्युतिथि याद न हो, तो आप इस दिन उनका श्राद्ध कर सकते हैं।

आश्विन कृष्‍ण पंचमी

जिनकी मृत्यु अविवाहित स्थिति में हुई हो, उनका श्राद्ध इस तिथि को किया जाना चाहिए।

आश्विन कृष्‍ण नवमी

सौभाग्यवती यानि पति के रहते ही जिनकी मृत्यु हो गई हो, उन स्त्रियों का श्राद्ध नवमी को किया जाता है। यह तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम मानी गई है। इसलिए इसे मातृनवमी भी कहते हैं। मान्यता है कि इस तिथि पर श्राद्ध कर्म करने से कुल की सभी दिवंगत महिलाओं का श्राद्ध हो जाता है।

आश्विन कृष्‍ण एकादशी और द्वादशी

एकादशी में वैष्णव संन्यासी का श्राद्ध करते हैं। अर्थात् इस तिथि को उन लोगों का श्राद्ध किए जाने का विधान है, जिन्होंने संन्यास लिया हो।

आश्विन कृष्‍ण चतुर्दशी

इस तिथि में शस्त्र, आत्म-हत्या, विष और दुर्घटना यानि जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो उनका श्राद्ध किया जाता है जबकि बच्चों का श्राद्ध कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को करने के लिए कहा गया है।

सर्व पितृमोक्ष अमावस्या

किसी कारण से पितृपक्ष की अन्य तिथियों पर पितरों का श्राद्ध करने से चूक गए हैं या पितरों की तिथि याद नहीं है, तो इस तिथि पर सभी पितरों का श्राद्ध किया जा सकता है। हिन्दू धर्म अनुसार, इस दिन श्राद्ध करने से कुल के सभी पितरों का श्राद्ध हो जाता है। यही नहीं जिनका मरने पर संस्कार नहीं हुआ हो, उनका भी अमावस्या तिथि को ही श्राद्ध करना चाहिए। बाकी तो जिनकी जो तिथि हो, श्राद्धपक्ष में उसी तिथि पर श्राद्ध करना चाहिए, यही उचित भी है।

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पितृ पक्ष कैलेंडर 2018

 इस साल श्राद्ध 24 सितंबर से शुरू होकर 8 अक्टूबर 2018 तक चलेंगे. पितृ पक्ष के कैलेंडर के अनुसार आप इस प्रकार इस अवधि का पालन कर सकते हैं.

24 सितंबर 2018

सोमवार

 पूर्णिमा श्राद्ध

 25 सितंबर 2018

मंगलवार

 प्रतिपदा श्राद्ध

 26 सितंबर 2018

बुधवार  द्वितीय श्राद्ध
 27 सितंबर 2018 गुरुवार

 तृतीय श्राद्ध

 28 सितंबर 2018

शुक्रवार  चतुर्थी श्राद्ध
 29 सितंबर 2018 शनिवार

 पंचमी श्राद्ध

 30 सितंबर 2018

रविवार  षष्ठी श्राद्ध
 1 अक्टूबर 2018 सोमवार

 सप्तमी श्राद्ध

 2 अक्टूबर 2018

मंगलवार  अष्टमी श्राद्ध
 3 अक्टूबर 2018 बुधवार

 नवमी श्राद्ध

 4 अक्टूबर 2018

गुरुवार  दशमी श्राद्ध

 5 अक्टूबर 2018

शुक्रवार

 एकादशी श्राद्ध

 6 अक्टूबर 2018 शनिवार

 द्वादशी श्राद्ध

 7 अक्टूबर 2018

रविवार  त्रयोदशी श्राद्ध, चतुर्दशी श्राद्ध
 8 अक्टूबर 2018 सोमवार

 सर्वपितृ अमावस्या, महालय अमावस्या

पितृ पक्ष का अंतिम दिन सर्वपित्रू अमावस्या या महालय अमावस्या के नाम से जाना जाता है। पितृ पक्ष में महालय अमावस्या सबसे मुख्य दिन होता है। इस दिन किसी भी मनुष्य का श्राद्ध किया जा सकता है। जिन लोगों को अपने मृत पूर्वजों की तिथि का पूर्ण ज्ञान नहीं होता वे भी इस दिन पितरों का तर्पण करवा सकते है।

विशेष – पिंडदान करने के लिए सफेद या पीले वस्त्र ही धारण करें। जो इस प्रकार श्राद्धादि कर्म संपन्न करते हैं, वे समस्त मनोरथों को प्राप्त करते हैं और अनंत काल तक स्वर्ग का उपभोग करते हैं। विशेष: श्राद्ध कर्म करने वालों को निम्न मंत्र तीन बार अवश्य पढ़ना चाहिए। यह मंत्र ब्रह्मा द्वारा रचित आयु, आरोग्य, धन, लक्ष्मी प्रदान करने वाला अमृतमंत्र है-

देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिश्च एव च। नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्युत ।।(वायु पुराण) ।।

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कब करना चाहिए श्राद्ध 

श्राद्ध सदैव दोपहर के समय ही करें। प्रातः एवं सायंकाल के समय श्राद्ध निषेध कहा गया है। हमारे हिन्दू धर्म में पितरों को देवताओं के समान संज्ञा दी गई है। ‘सिद्धांत शिरोमणि’ ग्रंथ के अनुसार चंद्रमा की ऊध्र्व कक्षा में पितृलोक है जहां पितृ रहते हैं। पितृ लोक को मनुष्य लोक से आंखों द्वारा नहीं देखा जा सकता। जीवात्मा जब इस स्थूल देह से पृथक होती है उस स्थिति को मृत्यु कहते हैं। यह भौतिक शरीर 27 तत्वों के संघात से बना है।

स्थूल पंच महाभूतों एवं स्थूल कर्मेन्द्रियों को छोड़ने पर अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर भी 17 तत्वों से बना हुआ सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता है। हिन्दू धर्म और संस्कृति के अनुसार एक वर्ष तक प्रायः सूक्ष्म जीव को नया शरीर नहीं मिलता। मोहवश वह सूक्ष्म जीव स्वजनों व घर के आसपास घूमता रहता है। श्राद्ध कार्य के अनुष्ठान से सूक्ष्म जीव को तृप्ति मिलती है इसीलिए श्राद्ध कर्म किया जाता है।

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ऐसा कुछ भी नहीं है कि इस अनुष्ठान में जो भोजन  खिलाया जाता है वही पदार्थ ज्यों का त्यों उसी आकार, वजन और परिमाण में मृतक पितरों को मिलता है। वास्तव में श्रद्धापूर्वक श्राद्ध में दिए गए भोजन  का सूक्ष्म अंश परिणत होकर उसी अनुपात व मात्रा में प्राणी को मिलता है जिस योनि में वह प्राणी है। पितृ लोक में गया हुआ प्राणी श्राद्ध में दिए हुए अन्न का स्वधा रूप में परिणत हुए को खाता है। यदि शुभ कर्म के कारण मर कर पिता देवता बन गया तो श्राद्ध में दिया हुआ अन्न उसे अमृत में परिणत होकर देवयोनि में प्राप्त होगा। गंधर्व बन गया हो तो वह अन्न अनेक भोगों के रूप में प्राप्त होता है।

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एक आँख में सूरज साधा एक आँख में चंद्रमा आधा

क्यों है श्री गणेश समस्त गणों यानी इंद्रियों के अधिपति और जाने असली कारण गणेश चतुर्थी का

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गणेश चतुर्थी आयोजन – Secrets Of Ganesh Chaturthi 

गणपति उपासना दरअसल स्व-जागरण की एक तकनीकी प्रक्रिया है। ढोल नगाड़ों से जुदा और बाहरी क्रियाकलाप से इतर अपनी समस्त इंद्रियों पर नियंत्रण करके ध्यान के माध्यम से अपने अंदर ईश्वरीय तत्व का परिचय प्राप्त करना और मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होना ही वास्तविक गणेश पूजन है। विनायक कहीं बाहर नहीं हमारे भीतर, सिर्फ हमारे अंतर्मन में ही विराजते हैं। हमारे मूलाधार चक्र पर ही उनका स्थायी आवास है।

गणेश है मूलाधार चक्र के अधिपति

समस्त गणों यानी इंद्रियों के अधिपति हैं महागणाधिपति। आदि देव गणेश जल तत्व के प्रतीक हैं। मूलाधार चक्र हमारे स्थूल शरीर का प्रथम चक्र माना जाता है। यही वो चक्र है, जिस पर यदि कोई जुम्बिश ना हो, जो यदि ना सक्रिय हुआ तो आज्ञाचक्र पर अपनी जीवात्मा का बोध मुमकिन नहीं है। ज्ञानी ध्यानी गणपति चक्र यानी मूलाधार चक्र के जागरण को ही कुण्डलिनी जागरण के नाम से पहचानते हैं।

नकारात्मक कर्म और कष्टों से मुक्ति की यात्रा है ये 10 दिन

कालांतर में जब हमसे हमारा स्वयं का बोध खो गया, हम कर्मों के फल को विस्मृत करके भौतिकता में अंधे होकर उलटे कर्मों के ऋण जाल में फंसकर छटपटाने लगे, हमारे पूर्व कर्मों के फलों ने जब हमारे जीवन को अभावग्रस्त कर दिया, तब हमारे ऋषि मुनियों ने हमें उसका समाधान दिया और हमें गणपति के कर्मकांडीय पूजन से परिचित कराया। पूर्व के नकारात्मक कर्म जनित दुःख, दारिद्रय, अभाव व कष्टों से मुक्ति या इनसे संघर्ष हेतु शक्ति प्राप्त करने के लिए, शारदातिलकम, मंत्र महोदधि, महामंत्र महार्णव सहित तंत्रशास्त्र के कई प्राचीन ग्रंथों में भाद्रपाद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से चतुर्दशी तक यानी 10 दिनों तक गणपति का विग्रह स्थापित करके उस पर ध्यान केंद्रित कर उपासना का विशेष उल्लेख प्राप्त होता है।

गणेश तंत्र के अनुसार भाद्रपद की चतुर्थी को अपने अंगुष्ठ आकार के गणपति की प्रतिमा का निर्माण करके विधि विधान पूर्वक स्थापित करके, उनका पंचोपचार पूजन करें और उनके समक्ष ध्यानस्थ होकर ‘मंत्र जप’ करना आत्मशक्ति के बोध की अनेकानेक तकनीकों में से एक है।

गणपति के बीज मंत्र से मिलेगी ऐश्वर्य और समृद्धि 

यूं तो मंत्र सार्वजनिक रूप से प्रकाशित करने का विषय नहीं है। इसे व्यक्तिगत रूप से किसी सक्षम और समर्थ गुरु से ही लेना चाहिए। इससे उस मंत्र को क्रियाशील होने के लिए शून्य से आरंभ नहीं करना पड़ता। सिर्फ संदर्भ के लिए, गकार यानी पंचांतक पर शशिधर अर्थात् अनुस्वर अथवा शशि यानी विसर्ग लगने से निर्मित “गं” या “ग:” गणपति का बीज मंत्र कहलाता है। इसके ऋषि गणक, छंद निवृत्त और देवता विघ्नराज हैं।

अलग-अलग ऋषियों ने गणपति के पृथक-पृथक मंत्रों को प्रतिपादित किया है। भार्गव ऋषि ने अनुष्टुप छंद, वं बीज और यं शक्ति से “वक्रतुण्डाय हुम” और विराट छंद से “ॐ ह्रीं ग्रीं ह्रीं” को प्रकट किया। वहीं गणक ऋषि ने “गं गणपतये नमः” और कंकोल ऋषि ने “हस्तिपिशाचिलिखै स्वाहा” को जगत के समक्ष रखा।

इन मंत्रों का सवा लाख जप (कलयुग में चार गुना ज्यादा, यानि 5 लाख) किया जाय और चतुर्दशी को जापित संख्या का जीरे, काली मिर्च, गन्ने, दूर्वा, घृत, मधु इत्यादि हविष्य से दशांश आहुति दी जाय तो हमारे नित्य कर्म और आचरण में ऐसे कर्मों का शुमार होने लगता है जो हमें कालांतर में समृद्ध बनाते हैं, ऐश्वर्य प्रदान करते हैं, ऐसा पवित्र ग्रंथ कहते हैं।

हल्दी के गणपति से पुनः यश और प्रतिष्ठा प्राप्त होगी

गणपति तंत्र कहता है कि अगर हमने दूसरों की आलोचना और निंदा करके यदि अपने यश, कीर्ति, मान और प्रतिष्ठा का नाश करके स्वयं को शत्रुओं से घेर लिया हो, और बाह्य तथा आंतरिक दुश्मनों ने जीवन का बेड़ा गर्क कर दिया हो, तो भाद्रपद की चतुर्थी को अंगूठे के आकार के हल्दी के गणपति की स्थापना उसके चतुर्दशी तक “ग्लौं” बीज का कम से कम सवा लाख जप किया जाए तो हमें अपने आंतरिक व बाह्य शत्रुओं पर विजय प्राप्ति में सहायता मिलती है।

रक्त चंदन के गणपति से उत्तम जीवन प्राप्त होगा

प्राचीन ग्रंथों के अनुसार भाद्रपद की चतुर्थी को रक्त चंदन या सितभानु ( सफेद आक) के गणपति की अंगुष्ठ आकार की प्रतिमा की स्थापना करके चतुर्दशी तक नित्य अष्ट मातृकाओं ( ब्राम्‍ही, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इंद्राणी, चामुंडा एवं रमा) तथा दस दिशाओं में वक्रतुंड, एक दंष्ट्र, लंबोदर, विकट, धूम्रवर्ण, विघ्न, गजानन, विनायक, गणपति, एवं हस्तिदन्त का पूजन करके मंत्र जप और नित्य तिल और घृत की आहुति उत्तम जीवन प्रदान करती है।

मिट्टी से निर्मित गणपति से शत्रुओ का नाश निश्चित है

कुम्हार के चाक की मिट्टी से निर्मित प्रतिमा से संपत्ति, गुड़ निर्मित प्रतिमा से सौभाग्य और लवण की प्रतिमा की उपासना से शत्रुता का नाश होता है। ऐसी प्रतिमा का निर्माण यथासंभव स्वयं करें, या कराएं, जिसका आकार अंगुष्ठ यानि अंगूठे से लेकर हथेली अर्थात् मध्यमा अंगुली से मणिबंध तक के माप का हो।

विशेष परिस्थितियों में भी इसका आकार एक हाथ जितना यानी मध्यमा अंगुली से लेकर कोहनी तक हो सकता है। इसके रंगों के कई विवरण मिलते हैं, पर कामना पूर्ति के लिए रक्त वर्ण यानी लाल रंग की प्रतिमा का उल्लेख ग्रंथों में मिलता है। गणपति साधना में मिट्टी, धातु, लवण, दही जैसे कई तत्वों की प्रतिमा का उल्लेख मिलता है, पर प्राचीन ग्रंथ चतुर्थी से चतुर्दशी तक की इस उपासना में विशेष रूप से कुम्हार के चाक की मिट्टी के नियम की संस्तुति करते हैं। ध्यान रहे कि शास्त्रों में कहीं भी विशालकाय प्रतिमा का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है।

गणेश जी को यही भोग पसंद है

शारदातिलकम के त्रयोदश पटल यानि गणपति प्रकरण में लिखा है कि अष्ट द्रव्य यानि मोदक, चिउड़ा, लावा, सत्तू, गन्ने का टुकड़ा, नारियल, शुद्ध तिल और पके हुए केले को विघ्नेश्वर का नैवेद्य माना गया है।

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धूर्त मेंढक, जैसी करनी वैसी भरनी As You Sow, So Shall You Reap

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एक बार की बात है कि एक चूहे और मेंढक में गहरी दोस्ती थी| उन दोनों ने जीवन भर एक दूसरे से मित्रता निभाने का वादा किया लेकिन चूहा तो ज़मीन पर रहता था और मेंढक पानी में| उन्होंने एक दूसरे के साथ रहने की एक तरकीब निकाली| दोनों ने एक रस्सी से खुद को बाँध लिया ताकि हर जगह हम एक साथ जाएँगे और सारे सुख दुख एक साथ भोगेंगे| जब तक दोनों ज़मीन पर रहे, तब तक तो सब कुछ अच्छा चल रहा था| अचानक मेंढक को एक शरारत सूझी और उसने पास के ही एक तालाब में

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घर के मंदिर और दैनिक पूजा-पाठ से जुड़े नियम, जानकारी और सावधानिया

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घर के मंदिर और दैनिक पूजा-पाठ से जुड़े नियम

पूजा-पाठ दैनिक जीवन से जुड़ा एक अत्यंत महत्वपूर्ण और शांतिपूर्ण कार्य है। जिसे सभी घरों में प्रातःकाल और सायंकाल किया जाता है। हिन्दू धर्म के अनुसार घर में पूजा पाठ करने से परिवार में शांति बनी रहती है और घर में सकारात्मक ऊर्जा रहती है। पूजा करने से घर में मौजूद नकारात्मकता का भी अंत होता है।

यूँ तो सभी अपने रीति-रिवाजों और मान्यताओं के अनुसार घर में पूजा करते हैं। लेकिन शास्त्रों के अनुसार, पूजा करने के कुछ विशेष नियम होते है और पूजा करते समय उनका ध्यान रखना बहुत आवश्यक होता है। इसके अलावा घर का मंदिर भी घर की सकारात्मकता को प्रभावित करता है। शास्त्रों के अनुसार, घर के मंदिर के भी नियम होते हैं जिनके अनुसार ही मंदिर बनवाना चाहिए। यहाँ हम आपको दैनिक पूजा पाठ और घर के मंदिर से जुड़े नियमों के बारे में बता रहे हैं।

घर के मंदिर से जुड़े नियम

  • शास्त्रों के अनुसार, पूजागृह – मंदिर में दो शिवलिंग, तीन गणेश, दो शंख, दो सूर्य प्रतिमा, तीन देवियों की मूर्ति, दो गोमती चक्र और दो शालिग्राम नहीं रखने चाहिए। और ना ही इनका पूजन करना चाहिए। ऐसा करना घर की शांति के लिए शुभ नहीं माना जाता।
  • घर के मंदिर में किसी भी भगवान की मूर्ति 9 इंच (22 सेंटीमीटर) से छोटी होनी चाहिए। इससे बड़ी प्रतिमा घर में रखना शुभ नहीं होता। बड़ी प्रतिमा को मंदिर में रखना चाहिए।

दैनिक पूजा-पाठ के नियम

  • पूजा के नियमानुसार देवी की परिक्रमा एक बार, सूर्य की सात बार, गणेश जी की तीन बार, विष्णु जी की चार बार और शिव जी की आधी परिक्रमा करनी चाहिए।
  • पूजा में भगवान की आरती करते समय भगवान विष्णु के सामने 12 बार, सूर्य देव के सामने 7 बार, देवी दुर्गा के सामने 9 बार, शंकर भगवान के सामने 11 बार और गणेश जी के सामने 4 बार आरती घुमानी चाहिए।
  • घर और मंदिर दोनों स्थानों पर पूजा करते समय केवल जमीन पर नहीं बैठना चाहिए। आसान बिछाकर बैठना चाहिए।

वास्तु अनुसार आपका घर कैसा हो

  • नए घर का शिलान्यास सबसे पहले आग्नेय दिशा में करना चाहिए। बाकी का निर्माण प्रदक्षिण-क्रम में करना चाहिए।
  • संध्याकाल, मध्याह्न, मध्य रात्रि में नींव नहीं रखनी चाहिए और ना ही भूमि पूजन करना चाहिए।
  • पूर्व, उत्तर और ईशान दिशा में नीची भूमि सबके लिए बहुत लाभकारी होती है। जबकि अन्य दिशाओं में नीची भूमि सबके लिए हानिकारक होती है।
  • वास्तु के अनुसार, घर के उत्तर में पाकड़, पूर्व में वटवृक्ष, दक्षिण में गुलर और पश्चिम में पीपल का पेड़ शुभ होता है। लेकिन पेड़ की छाया घर पर नहीं पड़नी चाहिए।
  • नए मकान का निर्माण करवाते समय, ईंट, लोहा, पत्थर, मिट्टी और लकड़ी ये सब नए ही लगवाने चाहिए। एक मकान की सामग्री को दूसरे मकान में नहीं लगवाना चाहिए। ऐसा करना अशुभ माना जाता है और मकान व् परिवार के लिए हानिकारक होता है।
  • सोने के समय हमेशा सिर हमेशा पूर्व और दक्षिण दिशा की ओर करना चाहिए।
  • प्रतिदिन घर से निकलते समय माथे पर तिलक, चंदन लगाना चाहिए इससे दिन शुभ जाता है और सभी कार्य बन जाते हैं।

तो ये थे दैनिक पूजा पाठ, घर के मंदिर और वास्तु के जुड़े कुछ नियम जिनका ध्यान रखना बहुत जरुरी होता है। माना जाता है, इन नियमों के अनुसार सभी कार्य करने से घर में खुशियां आती हैं और सकारात्मक ऊर्जा रहती है।

 

पूजा करते समय ज़रूर रखें इन बातों का ध्यान

  • पूजा में कभी भी बासी फूल और पत्ते न चढ़ाएं। आप प्रतिदिन पूजा से पहले फूल आदि तोड़ लें लेकिन एक और बात का ध्यान अवश्य रखें, कभी भी पूजा में इस्तेमाल होने वाले फूल को शाम के समय न तोड़ें।
  • हमेशा साफ़ और ताज़े जल का उपयोग पूजा में करें। भगवान को जल तांबे के बर्तन में अर्पित करें। गंगाजल कभी भी प्लास्टिक या लोहे-एल्यूमीनियम के बर्तन में न रखें, इससे गंगा जल की पवित्रता प्रभावित हो जाती है। जल लेने से पूर्व आप बर्तन को अच्छी तरह साफ़ कर लें।
  • पूजा के दौरान हमेशा स्वच्छ वस्तुओं का ही इस्तेमाल करें। हाँ, तुलसी पत्ता कभी बासी या पुराना नहीं होता है इसलिए उन्हें जल से धो कर आप दोबारा भगवान की पूजा में इस्तेमाल कर सकते हैं।
  • मंदिर में कभी भी चमड़े के जूते या चप्पल पहन कर न जाएँ। मंदिर एक पवित्र स्थान है और चमड़े से बनी कोई भी वस्तु में मृत जीवों का अंग होता है इसीलिए शास्त्रों के अनुसार चमड़े से बनी चीजों को मंदिर से दूर रखना चाहिए।
  • पूजा घर में कभी भी किसी मृतक या पूर्वज की फोटो न लगाएँ।
  • पीपल के पेड़ में बुधवार और रविवार को जल अर्पित न करें।
  • पूजा करते वक़्त घंटी अवश्य बजाएं क्योंकि इससे घर की नकारात्मक ऊर्जा खत्म समाप्त होती है और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
  • विष्णु को चावल, गणेश जी को तुलसी, देवी को दूर्वा, सूर्य को विल्व पत्र कभी नहीं चढ़ाना चाहिए, शास्त्रों के अनुसार ऐसा करने से भगवान नाराज हो जाते हैं।

पूजा-पाठ करने से व्यक्ति के मन को शांति मिलती है। अभी के समय में हर कोई अपने धर्म के अनुसार पूजा करता है। पूजा करते समय हम ऊपर दी गयी छोटी-छोटी बातों का ख्याल रखकर इसका प्रभाव बढ़ा सकते हैं। आशा करते हैं हमारा यह लेख आपको पसंद आया होगा।

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अमृत सिद्धि योग 2018 – ज़मीन, वाहन, एवं स्वर्ण की ख़रीदारी के लिए सर्वोत्तम मुहूर्त देखे

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अमृत सिद्धि योग 2018 तारीखें

वैदिक ज्योतिष शास्त्र के अनुसार अमृत सिद्धि योग को अत्यंत शुभ योग माना गया है। यह योग नक्षत्र एवं वार के संयोग से बनता है। ऐसा कहा जाता है कि इस योग में किए गए सभी कार्य पूर्ण रूप से सफल होते हैं, इसलिए समस्त मांगलिक कार्य के शुभ मुहूर्त के लिए इस योग को प्राथमिकता दी जाती है। इस योग में किसी नए कार्य को प्रारंभ करना भी शुभ माना जाता है। जैसे- व्यापार संबंधी समझौता, नौकरी के लिए आवेदन, ज़मीन, वाहन, एवं स्वर्ण की ख़रीदारी, विदेशगमन आदि।

अमृत सिद्धि योग 2018 – Amrit Siddhi Yog Dates 2018

दिनांक आरंभ काल समाप्ति काल
सोमवार, 01 जनवरी 07:13:56 14:53:31
रविवार, 07 जनवरी 25:10:04 31:15:12
शनिवार, 27 जनवरी 07:12:03 28:05:13
रविवार, 04 फरवरी 10:28:01 31:07:21
मंगलवार, 20 फरवरी 14:02:57 30:54:48
शनिवार, 24 फरवरी 06:51:58 11:28:44
रविवार, 04 मार्च 06:43:48 20:16:08
बुधवार, 07 मार्च 22:34:44 30:39:29
मंगलवार, 20 मार्च 06:25:55 19:44:39
बुधवार, 04 अप्रैल 07:31:28 30:07:24
बुधवार, 02 मई 05:40:06 17:38:51
शुक्रवार, 08 जून 23:02:38 29:22:43
शुक्रवार, 06 जुलाई 06:53:56 29:29:03
शुक्रवार, 03 अगस्त 05:43:20 14:25:18
गुरुवार, 09 अगस्त 29:44:31 29:47:15
सोमवार, 03 सितंबर 20:05:28 30:00:21
गुरुवार, 06 सितंबर 15:14:01 30:01:51
शनिवार, 29 सितंबर 26:14:26 30:13:15
सोमवार, 01 अक्टूबर 06:13:47 24:51:56
गुरुवार, 04 अक्टूबर 06:15:22 20:49:00
शनिवार, 27 अक्टूबर 08:20:48 30:29:57
रविवार, 04 नवंबर 21:35:30 30:35:40
मंगलवार, 20 नवंबर 18:34:23 30:48:04
शनिवार, 24 नवंबर 06:50:29 15:10:41
रविवार, 02 दिसंबर 06:56:46 27:01:04
बुधवार, 05 दिसंबर 27:34:38 30:59:46
मंगलवार, 18 दिसंबर 07:07:43 28:38:38
रविवार, 30 दिसंबर 07:13:11 08:24:18

वैदिक ज्योतिष शास्त्र के अनुसार अमृत सिद्धि योग को अत्यंत शुभ योग माना गया है। यह योग नक्षत्र एवं वार के संयोग से बनता है। ऐसा कहा जाता है कि इस योग में किए गए सभी कार्य पूर्ण रूप से सफल होते हैं, इसलिए समस्त मांगलिक कार्य के शुभ मुहूर्त के लिए इस योग को प्राथमिकता दी जाती है। इस योग में किसी नए कार्य को प्रारंभ करना भी शुभ माना जाता है। जैसे- व्यापार संबंधी समझौता, नौकरी के लिए आवेदन, ज़मीन, वाहन, एवं स्वर्ण की ख़रीदारी, विदेशगमन आदि।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इन कारणों से अमृत सिद्धि योग बनता है-

1.  हस्त नक्षत्र यदि रविवार के दिन हो तो अमृत सिद्धि योग बनता है।
2.  मृगशिरा नक्षत्र यदि सोमवार के दिन पड़े तो अमृत सिद्धि योग बनता है।
3.  अश्विनी नक्षत्र मंगलवार के दिन हो तो अमृत सिद्धि योग बनता है।
4.  अनुराधा नक्षत्र बुधवार के दिन हो तो अमृत सिद्धि योग बनता है।
5.  पुष्य नक्षत्र यदि गुरुवार के दिन हो तो अमृत सिद्धि योग बनता है।
6.  रेवती नक्षत्र यदि शुक्रवार के दिन पड़े तो अमृत सिद्धि योग बनता है।
7.  शनिवार के दिन रोहिणी नक्षत्र हो तो अमृत सिद्धि योग बनता है।

अमृत सिद्धि योग इस दिन पड़े तो इन कार्यों से करें परहेज़

अमृत सिद्धि योग मंगलवार के दिन पड़े तो गृह प्रवेश जैसे मांगलिक कार्यों को करना अशुभ माना गया है। इसी प्रकार यदि यह योग बृहस्पतिवार के दिन पड़े तो शादी-विवाह करना वर्जित माना गया है और शनिवार के दिन इस योग में यात्रा करना उपयुक्त नहीं माना गया है।

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काल भैरव को प्रसन्न करने के उपाय

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काल भैरव – Kaal Bhairav

हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, शिव जी के बहुत से स्वरुप हैं जिनमें से एक स्वरुप काल भैरव भी है। काल भैरव को देवी शक्ति के कोतवाल के रूप में जाना जाता है। यह रूप भगवान् शिव का उग्र रूप कहा जाता है जिनका पूजन आज से नहीं बल्कि पिछली कई सदियों से किया जाता आ रहा है।

काल भैरव शिव का प्रचंड स्वरुप है जिनका पूजन दुश्मनों को परास्त करने के लिए किया जाता है। काल भैरव का नियमित पूजन करने से मनुष्य को दुश्मनों से लड़ने की शक्ति मिलती है और इनकी पूजा से काले जादू के प्रभाव से भी बचा जा सकता है। ग्रहों की खराब चाल और आपत्तिजनक स्थितियों से बचने के लिए भी काल भैरव के पूजन का विधान है।

तांत्रिको इनकी आराधना करते है

इन्हे तांत्रिकों का देवता कहा जाता है इसलिए इनकी पूजा रात में की जाती है। और अगली सुबह पवित्र नदी में नहाकर भैरव बाबा को राख चढ़ाई जाती है। काल भैरव के पूजन में काले कुत्ते का बहुत अधिक महत्व होता है क्यूंकि माना जाता है की काले कुत्ते की सेवा करने से काल भैरव का आशीर्वाद मिलता है। यहाँ हम आपको काल भैरव को प्रसन्न करने के लिए कुछ उपाय बता रहे हैं जिनकी मदद से काल भैरव को प्रसन्न किया जा सकता है।

कहते है काल भैरव देवता को प्रसन्न करके मनचाहा वरदान पाया जा सकता है। तो आइये जानते है उन उपायों के बारे में।

काल भैरव को प्रसन्न करने के उपाय 

  • भैरव बाबा को प्रसन्न करने के लिए शनिवार के दिन अपने शहर के किसी ऐसे भैरव मंदिर को ढूंढे जहाँ लोगों ने पूजा करना लगभग छोड़ दिया हो। उसके बाद रविवार के दिन सुबह जल्दी जाकर मंदिर में सिंदूर, तेल, नारियल, पुए और जलेबी भैरव बाबा को चढ़ाकर उनका पूजन करें।
  • शनिवार के दिन सरसों के तेल में पापड़, पकौड़े, पुए आदि चीजे बनाकर रविवार के दिन किसी गरीब की बस्ती में जा कर बाँट आये। ऐसा करने से काल भैरव अधिक प्रसन्न होते हैं।
  • बुधवार के दिन सवा सौ ग्राम काले तिल, सवा सौ ग्राम काले उड़द, सवा 11 रुपए को सवा मीटर काले कपड़े की पोटली में बांधकर काल भैरव के मंदिर में दे आएं।
  • पांच गुरुवार तक हर गुरुवार को पांच नींबू भैरव बाबा को चढ़ाएं।
  • शुक्रवार या रविवार के दिन भैरव मंदिर में गुलाब, चन्दन या गूगल की 33 खुशबूदार अगरबत्तियां जलाएं। बाबा प्रसन्न होंगे।
  • काल भैरव को खुश करने के लिए रविवार, बुधवार या गुरुवार किसी भी दिन एक रोटी ले और उस पर अपनी तर्जनी और मध्यमा अंगुली को तेल में डुबोकर एक लाइन बनाएं। फिर यह रोटी किसी दो रंग वाले कुत्ते को खिलाएं।
  • बुधवार के दिन सवा किलो जलेबी भैरव मंदिर में चढ़ाएं और काले कुत्ते को खिलाएं। आने वाली बढ़ाएं दूर हो जाएंगी।
  • हर बृहस्पतिवार को कुत्ते को गुड़ खिलाने से भी काल भैरव प्रसन्न होते हैं।
  • शनिवार की रात को सरसों के तेल में उडद की दाल के पकोड़े बनाएं और रात भर उन्हें ढक कर रख दे। अगली सुबह जल्दी उठकर सुबह 6 से 7 बजे के बीच किसी से कुछ कहे बिना घर से निकले और राह में मिलने वाले सबसे पहले कुत्ते को यह पकोड़े खिला दे। भैरव नाथ खुश होंगे।
  • अगर आपका सामर्थ हो तो किसी भी दिन रेलवे स्टेशन जाकर किसी कोढ़ी, भिखारी को मदिरा की बोतल दान में दे। कहते है इससे भी भैरव बाबा प्रसन्न होते हैं।
  • काल भैरव की कृपा पाने के लिए लोबान, गूगल, कपूर, तुलसी, नीम, सरसों के पत्ते मिलकर सुबह और शाम को घर में धूनी देनी चाहिए। इससे घर में नकारात्मक ऊर्जा नहीं रहती।
  • 7 रोली, सिन्दूर, रक्तचंदन का चूर्ण, लाल फूल, गुड़, उड़द का बड़ा, धान का लावा, ईख का रस, तिल का तेल, लोबान, लाल वस्त्र, भुना केला और सरसों का तेल भैरव जी की प्रिय वस्तुएं मानी जाती है इन्हे अर्पित करने से भी भैरव नाथ खुश होते हैं।
  • काल भैरव की कृपा पाने के लिए भैरव मंदिर में इमरती व मदिरा का भोग लगाना चाहिए।
  • काले कुत्ते को भोजन कराने और दूध पिलाने से भी जातक पर काल भैरव की कृपा सदैव बनी रहती है।

ऊपर बताये गए सभी उपाय ज्योतिष के अनुसार है। अगर आपके यहाँ किसी अन्य तरीके से भैरव बाबा का पूजन किया जाता है और खुश किया जाता है तो आप उस तरह से ही भैरव बाबा की कृपा पा सकते हैं।

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अन्नप्राशन मुहूर्त 2018 – बच्चे को पहली बार अन्न ग्रहण कराने हेतु किया जाने वाला संस्कार

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अन्नप्राशन मुहूर्त 2018 – Annaprashan Muhurat 2018

अन्नप्राशन संस्कार हिन्दू धर्म में किये जाने वाले 16 संस्कारों में से एक है। मुंडन की तरह अन्नप्राशन भी बाल्यकाल में किया जाने वाला एक प्रमुख संस्कार है। अन्नप्राशन का अर्थ है बच्चे को पहली बार अन्न ग्रहण कराना। दरअसल जन्म के बाद 6 माह तक बच्चे मां के दूध पर निर्भर होते हैं लेकिन इसके बाद पर्याप्त पोषण के लिए उन्हें अन्न दिया जाता है। सामान्यतः छठवे माह में बच्चों का अन्नप्राशन संस्कार किया जाता है।

हिन्दू धर्म में बच्चे के जन्म बाद कुंडली बनाई जाती है और अन्य धार्मिक अनुष्ठान किये जाते हैं। ठीक उसी प्रकार विभिन्न कर्णवेध, मुंडन और विद्यारंभ संस्कार संपन्न होते हैं। अन्नप्राशन संस्कार को देश के अलग-अलग क्षेत्रों में विभिन्न नाम से जाना जाता है। दक्षिण भारत के केरल राज्य में इसे चोरूनु, पश्चिम बंगाल में मुखे भात आदि नामों से जाना जाता है।

अन्नप्राशन मुहूर्त 2018 (September – December)

दिनांक

तिथि वार

टिप्पणी

19 सितंबर दशमी बुधवार उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में
20 सितंबर एकादशी गुरुवार उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में
21 सितंबर द्वादशी शुक्रवार श्रवण नक्षत्र में
26 सितंबर प्रथमा बुधवार रेवती नक्षत्र में
27 सितंबर द्वितीया गुरुवार अश्विनी नक्षत्र में
1 अक्टूबर सप्तमी सोमवार मृगशिरा नक्षत्र में
4 अक्टूबर दशमी गुरुवार पुष्य नक्षत्र में
5 अक्टूबर एकादशी शुक्रवार माघ नक्षत्र में
10 अक्टूबर प्रथमा बुधवार चित्रा नक्षत्र में
11 अक्टूबर तृतीया गुरुवार स्वाति नक्षत्र में
5 नवंबर त्रयोदशी सोमवार हस्ता नक्षत्र में
9 नवंबर द्वितीया शुक्रवार अनुराधा नक्षत्र में
10 दिसंबर तृतीया सोमवार उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में
12 दिसंबर पंचमी बुधवार श्रवण नक्षत्र में
13 दिसंबर षष्टी गुरुवार धनिष्ठा नक्षत्र में
14 दिसंबर सप्तमी शुक्रवार शतभिषा नक्षत्र में

अन्नप्राशन संस्कार के लाभ

हिन्दू धर्म में अन्न को देवता का दर्जा दिया गया है। संसार में भोजन हर प्राणी की आवश्यकता है इसलिए गीता में कहा गया है कि अन्न से ही मनुष्य जीवित रहते हैं, इसलिए शास्त्रों में अन्नप्राशन संस्कार का महत्व बतलाया गया है-

  • अन्न से न सिर्फ शरीर को पोषण प्राप्त होता है बल्कि मन और बुद्धि का भी पोषण होता है, इसलिए कहा जाता है कि जैसा खाने अन्न वैसे होये मन।
  • अन्नप्राशन संस्कार का मुख्य उद्देश्य बच्चे को बच्चे को तेजस्वी और बलशाली बनाना है।
  • जन्म के बाद छठवें और सातवें माह से बच्चे के दांत निकलने लगते हैं और पाचन क्रिया मजबूत हो जाती है। इसके बाद वह अन्न ग्रहण करना शुरू करता है और अन्न के प्रभाव से उसके तन और मन का विकास होता है।
  • गर्भावस्था के समय शिशु के शरीर में गंदे भोजन के दोष आ जाते हैं। उसी के निवारण और बच्चे को शुद्ध भोजन कराने के उद्देश्य से अन्नप्राशन संस्कार कराया जाता है।

कब और कहां करें अन्नप्राशन संस्कार

जब शिशु छह माह का हो जाता है इसी समय में अन्नप्राशन संस्कार संपन्न किया जाता है। हिन्दू पंचांग के अनुसार बालक और बालिका दोनों के संंबंध में अन्नप्राशन संस्कार के समय में थोड़ा अंतर है।

  • बालक का अन्नप्राशन सम माह यानि 6 और 8वें महीने में किया जाता है, जबकि बालिकाओं का अन्नप्राशन विषम मास में 5 और सातवें महीने में होता है।
  • अन्नप्राशन संस्कार में बच्चे को चावल की खीर या स्थानीय और कुल परंपरा के अनुसार भोज्य पदार्थ देना चाहिए।
  • अन्नप्राशन संस्कार घर और मंदिर दोनों जगहों पर संपन्न किये जा सकते हैं। हालांकि घर पर विधिवत तरीके से या अपनी कुल परंपरा के अनुसार बच्चे का अन्नप्राशन कराना चाहिए।
  • शुभ तिथि और नक्षत्र का चयन कर बच्चे का अन्नप्राशन संस्कार करना चाहिए। कुछ लोग कुल परंपरा के अनुसार नवरात्रिमें अष्टमी और नवमी तिथि पर भी अन्नप्राशन संस्कार कराने को शुभ मानते हैं।

कैसे करें बच्चों का अन्नप्राशन संस्कार

अन्नप्राशन संस्कार को कई क्षेत्रों में अलग-अलग नाम से जाना जाता है और उसी के अनुरूप यह कार्य उत्सव के साथ किया जाता है। दक्षिण भारत के केरल राज्य में बच्चों का अन्नप्राशन संस्कार प्रसिद्ध मंदिर गुरुवयूर में किया जाता है। वहीं उत्तर भारत में मंदिर के साथ-साथ घर पर भी बच्चों को अन्न ग्रहण कराया जाता है।

  • इस दिन शिशु को स्नान कराके नये कपड़े विशेष रूप से धोती-कुर्ता या लहंगा-चोली पहनाएँ।
  • घर में अन्नप्राशन संस्कार के अवसर पर यज्ञ व हवन करें और बच्चे के बेहतर स्वास्थ्य की कामना करनी चाहिए।
  • बच्चे को अन्न खिलाने से पहले बने हुए भोज्य पदार्थ का भगवान को भोग लगाएँ और फिर शिशु का अन्नप्राशन कराएँ।
  • शुभ मुहूर्त में देवी-देवताओं का पूजन करने के बाद दादा-दादी, माता-पिता और अन्य परिजन चांदी के चम्मच से चावल की खीर बच्चे को खिलाएँ।
  • इस शुभ अवसर पर बच्चे को आशीष प्रदान करने के लिए रिश्तेदारों और बड़े-बुजुर्गों को बुलाएँ।

अन्नप्राशन संस्कार पर निभाई जाने वाली अनोखी प्रथा

अन्नप्राशन संस्कार संपन्न होने के बाद कहीं-कहीं एक अनोखी प्रथा का चलन भी है। इस दौरान परिवार के लोगों के बीच शिशु के आगे चांदी के बर्तन में पुस्तक, रत्न, कलम और मिट्टी आदि वस्तुएँ रखी जाती हैं। उन सामानों में से बच्चे कोई एक वस्तु उठता है और लोक परंपराओं के अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं।

  • पुस्तकें सीखने और समझने की लालसा को दर्शाती है
  • रत्न धन को दर्शाता है
  • कलम ज्ञान का प्रतीक है
  • मिट्टी संपत्ति का प्रतीक है

मान्यता है कि बच्चा इनमें से जो वस्तु उठाता है उससे स्वभाव का पता चलता है और भविष्य में वह उसी वस्तु से संबंधित व्यवसाय या नौकरी करता है।

अन्नप्राशन संस्कार का महत्व और पौराणिक कथा

जब कोई शिशु माता के गर्भ में रहता है तो उसके अंदर मलिन भोजन के दोष आ जाते हैं और इसके प्रभावों को दूर करने के लिए बच्चे को शुद्ध भोजन करवाया जाता है। हालांकि जन्म के बाद 6 महीने तक पर्याप्त पोषण के लिए शिशु माँ के दूध पर निर्भर रहता है। इसके बाद उसे अन्न ग्रहण कराया जाता है, इसलिए अन्नप्राशन संस्कार का विशेष महत्व है।

शास्त्रों में अन्न को जीवन का प्राण कहा गया है और अन्न से ही मनुष्य को ऊर्जा व शक्ति मिलती है। अन्न के संदर्भ में एक बात यह भी कही गई है कि ‘जैसे खाए अन्न वैसा होए मन’ इसलिए हिन्दू धर्म में शुद्ध और सात्विक भोजन पर जोर दिया गया है। अन्न के महत्व से जुड़ी महाभारत काल में एक पौराणिक कथा भी मिलती है।

मान्यता है कि महाभारत के युद्ध के समय जब भीष्म पितामह बाणों की शैय्या पर लेटे हुए थे तो पांडव उनके उपदेश सुन रहे थे। पितामह धर्म से जुड़ी बातें कह रहे थे इसी दौरान द्रौपदी एकाएक हँसने लगी। पांचाली के इस व्यवहार से सभी हैरान हुए लेकिन पितामह ने द्रौपदी से उसकी हंसी का कारण पूछा। तब द्रौपदी ने कहा कि ‘पितामह आप धर्म और ज्ञान की बातें कर रहे हैं जो सुनने में अच्छी लग रही हैं लेकिन जब भरी सभा में कौरवों द्वारा मेरा चीरहरण किया जा रहा था उस समय आपका धर्म कहाँ गया था? उस समय आपने दुर्योधन को धर्म का ज्ञान क्यों नहीं दिया था। बस यही बात याद करके मैं हँसने लगी।’

द्रौपदी की इस बात का उत्तर देते हुए भीष्म पितामह ने कहा कि ‘पुत्री, उस समय मैं जो अन्न ग्रहण करता था वह दुर्योधन का था। उसी अन्न से मेरा रक्त बनता था इसलिए जैसा दुराचारी स्वभाव दुर्योधन का था वैसा ही दूषित अन्न मुझे मिलता था। उस भोजन को ग्रहण करने से मेरे मन व बुद्धि पर उसका असर था लेकिन अर्जुन के बाणों ने पाप के अन्न से बना सारा रक्त बहा दिया। जिसकी वजह से अब मेरा मन व भावनाएँ शुद्ध हैं और मैं वही बातें कह रहा हूं जो धर्म के अनुकूल हैं।

अन्नप्राशन संस्कार के संदर्भ में मिलने वाली ये सभी जानकारियाँ इस संस्कार के महत्व और उपयोगिता को दर्शाती है, इसलिए यह आवश्यक है कि शास्त्रों में दिये गये समय और तिथि के अनुसार हम अपने बच्चों का अन्नप्राशन कराएँ ताकि उन्हें बुद्धि, बल और पर्याप्त पोषण की प्राप्ति हो।

https://ift.tt/2DA3uB5 http://bit.ly/2pnaflz Bhaktisanskar.com – भक्ति और अध्यात्म का संगम अन्नप्राशन मुहूर्त 2018 – बच्चे को पहली बार अन्न ग्रहण कराने हेतु किया जाने वाला संस्कार

कर्णवेध मुहूर्त 2018 – शारीरिक व्याधि से बचाने और बौद्धिक शक्ति की मजबूती हेतु संस्कार

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कर्णवेध मुहूर्त 2018 – Karnvedha Muhurat 2018

कर्णवेध का अर्थ है कर्ण यानि कान और वेधन का मतलब छेदना अर्थात कान को छेदना। कर्णवेध हिन्दू धर्म में वर्णित 16 संस्कारों में से 9वां संस्कार है। यह क्रमशः अन्नप्राशन और मुंडन संस्कार के बाद किया जाता है। बच्चों को शारीरिक व्याधि से बचाने और श्रवण व बौद्धिक शक्ति को मजबूत बनाने के लिए यह संस्कार किया जाता है। यह संस्कार 3, 5 और 7वें साल में या फिर अपनी कुल परंपरा के अनुसार किया जाता है। इसमें बालकों का दायाँ और बालिकाओं का बायाँ कान छेदने की परंपरा है।

कर्णवेध तिथि और मुहूर्त 2018

मार्गशीर्ष शुभ मुहूर्त शुक्ल पक्ष

 12 दिसंबर 2018  बुधवार  श्रवण  पंचमी
 13 दिसंबर 2018  गुरुवार  धनिष्ठा  षष्ठी
 17 दिसंबर 2018  सोमवार  रेवती  दशमी

कर्णवेध संस्कार के लाभ और महत्व

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार कर्णवेध संस्कार के बौद्धिक और शारीरिक लाभ बताये गये हैं इसलिए इसे विद्यारंभ संस्कार से पहले ही कराने की सलाह दी जाती है ताकि बच्चे की बौद्धिक शक्ति का विकास हो और वह अच्छे से विद्या ग्रहण कर सके।

  • मान्यता है कि कान छिदवाने की वजह से श्रवण शक्ति में वृद्धि होती है और बालक प्रखर व बुद्धिमान होता है।
  • कर्णवेध के बाद कानों में कुंडल पहनने से सौंदर्यता बढ़ती है और बच्चे के तेज में वृद्धि होती है।
  • कर्णवेध के प्रभाव से हार्निया और लकवा जैसी बीमारियों से बचाव होता है। इसके अलावा अंडकोष की सुरक्षा भी होती है।

कब करें कर्णवेध संस्कार

बच्चों के कर्णवेध संस्कार के लिए शुभ लग्न, तिथि, माह और नक्षत्र का विशेष महत्व है।

  • धर्म सिन्धु के अनुसार कर्णवेध संस्कार शिशु जन्म के बाद दसवें, बारहवे, सोलहवे दिन या छठे, सातवे, आठवे, दसवे और बारहवे माह में करना चाहिए। इसके बाद यह संस्कार विषम वर्षों जैसे 1,3 और 5वें वर्ष में करना चाहिए।
  • कुल परंपरा के अनुसार भी शिशु जन्म के बाद उसका कर्णवेध संस्कार विषम वर्षों में किया जाता है।
  • वहीं बालिकाओं का कर्णवेध संस्कार विषम वर्षों में किया जाना चाहिए। कान छिदवाने के साथ-साथ बालिकाओं की नाक छिदवाने की भी परंपरा है।
  • कार्तिक, पौष, चैत्र, फाल्गुन मास कर्णवेध के लिए शुभ माने गये हैं।
  • कर्णवेध संस्कार के समय वृषभ, धनु, तुला और मीन लग्न में बृहस्पति हो तो, यह समय इस संस्कार के लिए सबसे श्रेष्ठ माना गया है।
  • कर्णवेध संस्कार के लिए मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजीत, श्रवण, धनिष्ठा, पुनर्वसु
  • सोमवार, बुधवार, गुरुवार और शुक्रवार का दिन कर्णवेध संस्कार के लिए शुभ माना गया है।
  • चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या की तिथि को छोड़कर अन्य तिथियों में कर्णवेध संस्कार करना चाहिए।

विशेष: कर्णवेध संस्कार खर मास यानि (जिस समय सूर्य धनु और मीन राशि में हो), क्षय तिथि, देवशयनी से देवउठनी एकादशी, जन्म मास और भद्रा में कर्णवेध संस्कार नहीं करना चाहिए।

कैसे करें कर्णवेध संस्कार

  • शुभ मुहूर्त में पवित्र स्थान पर बैठकर देवी-देवताओं का पूजन करने के बाद सूर्य के सामने मुख करके चांदी, सोने या लोहे की सुई से बालक या बालिका के कानों में निम्न मंत्र बोलना चाहिए-
भद्रं कर्णेभिः क्षृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।।
  • मंत्र पढ़ने के बाद पहले बालक के दाहिने कान में और फिर बाएँ कान में सुई से छेद करें और उनमें कुंडल पहनाएँ।
  • वहीं बालिका के संदर्भ में पहले बाएँ कान में फिर दाहिने कान में छेद करें तथा बायीं नाक में भी छेद करके आभूषण पहनाएँ।
  • मस्तिष्क के दोनों हिस्सों को विद्युत के प्रभावों से सशक्त बनाने के लिए नाक और कान में छिद्र करके सोना पहनना लाभकारी माना गया है।
  • नाक में नथुनी धारण करने से नासिका से संबंधित रोग नहीं होते हैं और सर्दी-खांसी में राहत मिलती है।
  • वहीं कानों में सोने के झुमके या कुंडल पहनने से बालिकाओं को मासिक धर्म से संबंधित कोई विकार नहीं होते हैं, साथ ही हिस्टीरिया रोग में भी लाभ मिलता है।

कर्णवेध के संदर्भ में धार्मिक मान्यता है कि सूर्य की किरणें कानों के छिद्र से प्रवेश करके बच्चों को शक्ति और ऊर्जा प्रदान करती है। इससे बच्चों की बौद्धिक शक्ति में वृद्धि होती है। वहीं शास्त्रों में कर्णवेध रहित पुरुषों को पितरों के श्राद्ध का अधिकारी नहीं माना गया है, इसलिए कर्णवेध संस्कार बहुत महत्वपूर्ण और अनिवार्य माना जाता है।

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दशहरा 2018, कब है रावण दहन, रावण दहन की मान्यता

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2018 में रावण दहन कब है?

2018 Vijayadashami Date : आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को दशहरा / विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है जो हिन्दू धर्म के बड़े त्योहारों में से एक है। इस पर्व को भगवान राम की जीत के रूप में मनाया जाता है, क्योंकि इसी दिन भगवान् श्री राम ने लंकापति नरेश रावण का वध किया था। इसी के साथ यह पर्व देवी दुर्गा की आराधना के लिए मनाये जाने वाले शारदीय नवरात्रि का दसवां दिन होता है जिसमे सभी व्रती उपवास खोलते है।

विजयदशमी को मुख्य रूप से असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है, और क्योंकि यह पर्व दशमी तिथि को मनाया जाता है इसलिए इसका नाम विजयदशमी रखा गया है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यह उत्सव माता विजया के जीवन से जुड़ा हुआ है।

माना जाता है कि भगवान श्री राम ने भी मां दूर्गा की पूजा कर शक्ति का आह्वान किया था, भगवान श्री राम की परीक्षा लेते हुए पूजा के लिये रखे गये कमल के फूलों में से एक फूल को गायब कर दिया। चूंकि श्री राम को राजीवनयन यानि कमल से नेत्रों वाला कहा जाता था इसलिये उन्होंनें अपना एक नेत्र मां को अर्पण करने का निर्णय लिया ज्यों ही वे अपना नेत्र निकालने लगे देवी प्रसन्न होकर उनके समक्ष प्रकट हुई और विजयीहोने का वरदान दिया।

विजयदशमी – दशहरा का महत्व

धार्मिक महत्व होने के साथ-साथ इसका सांस्कृतिक महत्व भी है। इस समय किसान अपनी फसल को काटकर घर लाते हैं और भगवान का धन्यवाद करने के लिए पूजन करते हैं। बहुत से स्थानों पर इस दिन शस्त्र-पूजा की जाती है। और बहुत से लोग नए कार्य प्रारंभ करते है (जैसे – अक्षरारंभ, नये उद्योग का आरंभ, बीज बोना आदि)। मान्यता है इस दिन जो भी कार्य शुरू किया जाता है उसमे सफलता अवश्य मिलती है। इस दौरान रामलीला का भी आयोजन किया जाता है।

एक अन्य संस्कृति के अनुसार, इस दिन रावण, मेघनाद (पुत्र) और कुंभकरण (भाई) का पुतला बनाकर शाम के समय रामलीला समाप्त होने के बाद राम द्वारा बाण चलाकर जलाया जाता है। दशहरा पर्व को काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी का परित्याग करने की शिक्षा देता है।

दशहरा मुहूर्त 2018

दशहरा, आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की दशमी को मनाया जाता है। जिसका पूजन अपराह्न काल में किया जाता है। इस काल की अवधि सूर्योदय के बाद दसवें मुहूर्त से लेकर बारहवें मुहूर्त तक की होती है। जब दशमी दो दिन की होती है और केवल दूसरे दिन अपराह्न काल में व्याप्त तो दशहरा दूसरे दिन मनाया जाता है।

अगर दशमी दो दिन हो और दोनों दिन अपराह्न काल में हो तो दशहरा पहले दिन मनाया जाएगा। अगर दशमी दो दिन पड़ रही है लेकिन अपराह्न काल में नहीं है, इस स्थिति में विजयदशमी पहले दिन मनाई जाएगी।

नवरात्रि में दशहरा का महत्व

नवरात्रि के धार्मिक पर्व में भी विजयदशमी का खास महत्व माना जाता है। क्योंकि दशहरा नवरात्रि पर्व के दसवें दिन आता है। इस पर्व का माँ भगवती के भक्तों के लिए भी खास महत्व होता है। क्योंकि इसी दिन सभी व्रती अपना नवरात्रि उपवास खोलते है। कहते है भगवान राम को विजय का आशीष भी माँ भगवती ने ही दिया था।


2018 में दशहरा कब है – Vijayadashami 2018 Puja Time

2018 में दशहरा 19 अक्टूबर 2018, शुक्रवार के दिन मनाया जाएगा।

विजयदशमी पूजा मुहूर्त – Vijayadashami Puja Muhurat

विजय मुहूर्त = 13:58 से 14:43 तक
अपराह्न मुहूर्त = 13:13 से 15:28 तक
दशमी तिथि आरंभ = 15:28 (18 अक्टूबर 2018)
दशमी तिथि समाप्त = 17:57 (19 अक्टूबर 2018)

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